Sunday, December 4, 2016




आज अचानक २००३ की डायरी का यह पन्ना हाथ लगा,,,,, कुछ तो लिखा है,

उस अनदेखे पहाड़ ने/काँधे पर टंगी बरफ की झोली से/चिलकती हवा निकाली
हथेली पर रख फुर्रर्र किया/समन्दर पर बरसने लगी/झमाझम बरसात,
विश्वास ?... अभी तक नहीं...
गला खराब है आजकल मेरा/ बैठ गई है आवाज/हिमालयी बरफ जो छुल गई गुपचुप/
कान्हा की वंशी तभी तक थी/ जब तक थी राधा पास/ द्वारिका के राजमहल में/ वंशी भी हो गई उदास/
वह गोपिका बीत गई/ प्रेम नहीं /तीर खाते वक्त कृष्ण लीन थे/राधा में, अक्षुण्ण प्रेम में/
क्या है यह प्रेम?/क्या राधा समझ पाई? या फिर कृष्ण? गुपचुप डूबते रहना? क्या तिर कर पार जाना? या फिर यूँ ही शहद का माया जाल?
तीर्थ का गन्दगी से जुड़ना/ गन्दगी का जिन्दगी के करीब होना/ जिन्दगी का खूबसूरत होना/ कौन सा समीकरण है यह?
ज़रूरी नही कि राह एक ही हो/ यह भी जरूरी नहीं कि उस पर चला ही जाए/ जरूरी तो कुछ नहीं/अनेक राहों पर चलते हुए भी /पहुँचा जा सकता है मुकाम पर/
उम्र चलती रहती है, मन भी/पर देह नहीं हावी होती भावना पर/
देह से परे रह कर/ देह को महसूस कर पाना/ संभव है पर परिशुद्ध नहीं/
फिर भी किसी रस की डोर पकड़/ पार किया जा सकता है/ बीहड़ थार/
#RatiSaxena

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