नमक का स्वाद काफी लम्बे वक्त तक जीभ पर बना रहता है, जबकि मधुर जरूरत से ज्यादा मधुर, कटु सा बन जाता है। यूरोपीय संस्कृति के प्रभाव से हमने भोजन के अंत में स्वीट डिश का उपयोग करना सीख लिया, जो हमारे एशियन स्वभाव के अनुरूप नहीं है।
नमक में सौंदर्य है, नमक में विश्वास भी है। सिकन्दर के देश, गेलगलिया, में कहा जाता है कि यहाँ उसकी पत्नी ने एक नगर बसाया था, आज भी नमक और रोटी से स्वागत किया जाता है। 2009 में जब मैं स्त्रुगा पोइट्री फेस्टीवल में भाग लेने मेडेलिन गई तो हमें बाद में गेलगेलिया ले जाया गया। जब हम होटल पहुँचे तो बाहर बेहद सुंदर लड़किया, थाली में ब्रेड और नमक लिए खड़ी थी, लड़कों के हाथ में जल था। हमें रोटी को पानी में भिगो कर नमक छुला कर भीतर आना था। मुझे अचानक लगा कि नमक हलाल और नमक हराम का अर्थ खुल गया। यानी कि जिसने भी नमक खाया वह दुश्मनी नहीं कर सकता और कर लेता है तो वह नमक हलाल माना जाता है। अब नमक हलाली सिकंदर लाये या हमारे देश में पहले से मौजूद थी, लेकिन संस्कृत पुस्तकों में लावण्य तो है, नमक हलाली दिखाई नहीं देती।
नमक के दरोगा से लेकर नमक के लिए डांडी यात्रा हमारे जेहन में बसी हुई है, लेकिन मुझे नमक के कुओं की जो कहानी चीन के जिंगान जिले में मिली। चीन में लगभग 2,250 साल पहले ही एक अभूतपूर्व तकनीक के सहारे कुंओं से नमक निकाला जाता रहा और देश विदेशों में निर्यात होता रहा। यह सोचने की बात है कि पुलि आदि इन तकनीकियों का विकास पश्चिम देशौं में चीन के इस अविष्कार के छह सौ साल बाद ही हुआ। और इसमें प्रयुक्त तकनीकि सामग्री बांस आदि से बनी होने के उपरांत भी पूर्णतया वैज्ञानिक है। यह बात अलग है कि यह सोच कब कैसे उपजी, उसके बारे में शोध की जरूरत है। लेकिन हम जानते हैं कि पहाड़ी इलाकों में नमक जितना जरूरी होता है, उतना ही दुर्लभ भी। लद्दाख जैसी जगहों में चाय में नमक डाला जाता है, जो संभवतया प्रकृति का सामना करने के लिए जरूरी होता होगा।
चीन का सिचान Sichuan इलाका समंदर से दूर है, और पठार पर है, निसंदेह यहां नमक मिलना बेहद महत्वपूर्ण है। जिस किसी के कुए में यह पहला नमकीन पानी निकला होगा, और जिन जिन के दीमाग में नमक बनाने की बात आई होगी, और जिन जिन ने इस तकनीक को बनाने की कोशीश की, वे सब इतिहास के पन्नों से गायब है। लेकिन नमक के कुएं आज तक है। इन कुओं ने इस प्रांत की तकदीर बदल दी, देश विदेश से व्यापारी यहाँ आने लगे, नमक का व्यापार शुरु हुआ तो कामगार भी आने लगे, और प्रांत की तस्वीर ही बदल गई। ऐसा माना जाता है कि 1882 मे पहला कुआ खोजा गया था।
नमक के ये कुएं बहुत गहरे होते हैं, कुछ तो हजार मीटर गहरे तक। लेकिन उस काल के लोगों ने बेहद मजबूत तकनीक का अविष्कार किया, जो आज भी अद्भुद मानी जाती है। इसमें से नमक निकालने के लिए अनेक उपकरणौं की मदद ली जाती थी। ये पहले बांस के बने होते थे, फिर लोहे के बनने लगे। सभी तरह के यंत्र थे, जैसे कि नमक की गहराई पता लगाने का, या फिर मार्ग में कुछ रुकावट हो तो उसे दूर करने का, और नमक के पानी को खींचने के उपकरण।
नमक के कुएं पूरब के संस्कृति के विकास की गाथा कहते हैं, जिसे बाद के वर्षों में यूरोपीय जनों ने निम्नतर माना। निसन्देह इस तरह की तकनीक भारत में भी कहीं रही होगी, केरल में खेतों से नमकीन पानी निकालने वाले चक्र तो मिलते हैं, हमे उन्हे खोज निकालना चाहिए, और अपनी देसी तकनीक के विशेषताओं को विश्व पटल में लाना चाहिए।