Wednesday, March 8, 2017

ईरान के कुछ पन्ने





मैं विरोध करना चाहती हूँ
स्याह पर्दों का
और अपने ऊपर चढ़ा लेती हूँ
सुर्ख लिबास
मुझे उम्मीद होती है
कि मेरा सुर्खपना
उनके स्याह पर एक
सूराख करेगा
सच होती है मेरी उम्मीद
जब एक खातून कहती है
खुदा खैर करे
हम भी आपके से बनेंगे....

.............

कैसे उठाती होंगी
वजन
ये नाजुक इबारतें
उनके
सिर्फ
सिर्फ उनके
खुदाओं का ?????




2014 में ,  मैं ईरान में थी, यह उस वर्ष की चौथी विदेश यात्रा थी, कुछ वर्ष यात्रा प्रिय होते ही हैं, हाँ ईरान यात्रा मेरे लिये स्वप्न प्रिया थी,,,फरवरी में अचानक ईरान एम्बेसी से फोन आया कि इस साल के फज्र पोइट्री फेस्टीवल में आपका नाम चुना गया है, कृपया कुछ कविताए और बायों डेटा भेज दे. मुझे समझ नहीं आया कि दिल्ली में इतने महारथी बैठे हैं तो यह कृपा कैसे हुई... फिर याद आया कि दो हजार पाँच में मेरी कई कविताओं के अनुवाद एक अच्छे इन्टर्व्यू के साथ वहाँ कि प्रमुख पत्रिका में छपी थी, और अनुवादक वही परि थी, जिसकी गाथा मेरे मन में परिकथा बन गई है... संभवतया यही परिपेक्ष्य था।

खैर जब तक फज्र फेस्टीवल का कार्यक्रम शुरु हुआ, मुझे अमेरिका एलिस पार्टनोइ के बुलावे में जाना था, दोनों यात्राओं के बीच वक्त कम था। लेकिन अच्छाई यही थी कि दोनों यात्राओं में टिकिट से लेकर सारे बन्दोबस्त आयोजक ही कर रहे थे। अमेरिका यात्रा के लिए वीसा का बन्दोबस्त करना था, लेकिन ईरान यात्रा में सारा काम वे ही देख रहे थे,,, फिर भी व्यग्रता तो थी, खास तौर से जब दस दिन पहले तक मेरे हाथ में कुछ प्रमाण ना हो... खैर जैसा कि सरकारी कामो में अक्सर होता है,,,, आखिरी सप्ताह में सारी तस्वीर साफ हुई, मुझे मुम्बई जाना था, जहाँ पर ईरान कल्चर सैन्टर मेरी पूरी तैयारी कर रहा था। मुझे बता दिया कि आप होटल मे रहें, और सारा खर्चा हम वहन करेंगे। मुम्बई में पहुंने के बाद यह मेरा सबसे सरल वीसा था, मैं आराम से ईरान कल्चर सेन्टर की चाह पीती रहीं, और वही से मेरा पासपोर्ट एम्बेसी में भेज दिया गया। दो घण्टे के उपरान्त मेरे पास मेरा पासपोर्ट वीसा सब कुछ था, कल्चर सेन्टर का एक कर्मचारी होटल तक छोड़ने तक आया। मेरे टिकिट बिजिनेस क्लास में बुक किये गये थे, तो हवाई जहाज तक पहुंचने में भी कोई समस्या नही... ओमान में पुनः होटल हाजिर,,,,

जब तेहरान पहुँची तो एक घबराहट सी महसूस हुई, बेहद थमी सी हवा थी, घुटी घुटी, हर कोई सिर नीचे किए अपने काम से काम,,, कोई खिलखिलाहट या मुस्कुराहट नहीं. यहाँ तक वीसा चैक पोस्टर भी कर्मचारी आँख तक नहीं मिलाते ,,, यहाँ पर चीन के यात्रियों की अच्छी खासी भीड़ थी, दरअसल चीन और ईरान में बड़ा दोस्ताना सम्बन्ध है.... कुछ घबराहट हुई, क्यों कि समझ नहीं आ रहा था कि कौन से गेट पर पिकअप मिलेगा।

तभी मुझे कुछ लोग हाथ हिलाते दिखाई दिये,,, मैं पास पहुँची तो पूछा,,,, इन्दिया,,,, मैंने सिर हिलाया, फिर उन्होंने मेरे नाम का कार्ड दिखाया,,,, वे मुझे लेकर सीढ़ी पर चढ़ने लगे,,, मैंने देखा कि सीढ़ी के ऊपर एक विडियों ग्राफर खड़ा पिक्चर ले रहा है, मुझे लगा कि कोई नेता होगा,.. मैं पीछे मुड़ कर देखने लगी तो पीछे कोई नहीं था... तब समझ आया की यहाँ कवि को भी इतना सम्मान दिया जाता था,

फज्र फेस्टीवल में इरान के कम से कम चारसौ कवि भाग लेते हैं, और विदेश से केवल पाँच बुलाये जाते हैं, इस बार भारत, मिश्र , इराक , बलूचिस्तान और अफ्रीका से पांच कवि चुने गये। अपने देश के कवियों को सम्मान देना अच्छी ही बात है।

हमें लेकर सात सितारा होटल आाजादी होटल ले कर आया गया, जहां पर इरान कल्चर सैन्टर के अनेक अधिकारी थे। मैंने देखा कि उनमें कोई स्त्री नहीं थी, मुझे अपने दुभाषिये से परिचित करवाया गया, और भोजन के लिये पूछा, मैं बेहद थकी थी और खास भूख भी नहीं.... भाषा के परिचय के अभाव में कुछ सम्वाद समझ नहीं आ रहा था, बाकी चार कवि अरबी जानते थे, अतः अरबी फारसी में सम्वाद की समस्या नहीं थी,, लेकिन मेरे लिये तो अरबी फारसी सब एकसी थी, इतना ही नहीं वहाँ स्त्री पुरुष का भेदभाव साफ दिखाई दे रहा था, ना किसी ने हाथ मिलाया, ना ही कोई मेरे साथ बैठा, अनुवादक हल्की बात का तो अनुवाद कर देता, लेकिन कोई गम्भीर बात होती तो चुप रह जाता,,,,, इतने शब्दों के बीच भी जब मन के सामने कोई तस्वीर ना खुले तो भाषा की सीमा समझ में आती है।

कार्यक्रम शाम से था, इसलिए सुबह के वक्त हमे गोलेस्तान पेलेस में लेजाया गया, जों ईरान के विस्थापित राजा का था, महल में यूरोपीय छाप थी. महल हमेशा एक से होते हैं, और हर स्थान का राजा दूसरे देशों से कीमती सामान लाकर अपने महलों में भरते रहे हैं, राजस्थान, हैराबाद आदि के महलों में भी यह स्थिति रही थी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण रहा. Omidvar brothers में से एक से मिलना। ये दोनों भाई १९५० में विश्वभ्रमण के लिए निकले थे, अधिकतर यात्रा कार या मोटर साइकिल से पूरी की थी। उनके सफर के चित्र प्रदर्शित थे। ओमिदवार भाई भारत भी आये थे, और नेहरू जी से मिले थे। इस वक्त एक भाई ईरान में थे, और दूसरे संभवतया बाहर थे। लेकिन इस उम्र में भी वे बहुत स्वस्थ लग रहे थे। उनकी वह कार, जिसमें उन्होंने सफर किया था, आज प्रदर्शन का हिस्सा बन गई है, लेकिन वे आज भी युवाओं के साथ काम करते हैं।

 यूँ तो कार्यक्रम बहुत भव्य था , बेहतरीन मंच, खूबसूरत , बेजोड़ गायकों की टोली, लेकिन मंच पर एक मात्र स्त्री मैं ही थी, ‌और मुझे से बात करने वाला कोई नहीं। एक बात मुझे अच्छी लगी कि उन्होंने पहले अपने देश के कवियों से कविता पढ़वाई, अन्त में बाहर से आये हम लोगों से। जबकि हम अपने देश में बाहर के लोगों को देख अपनों की इज्जत भुला बैठते है्।

कविता पाठ के बाद अनुवाद पढ़ा गया, और करीब करीब सब ठीक ही था।

बेहतरीन होटल, कमरे मे फ्रिज खाने से लबालब, जो चाहे वो मंगा कर खाया जा सकता था, फिर भी मेरा मन नहीं लग रहा था, क्यों कि कवि समाज वाली भावना ही गायब थी. लोगो के हुजूम में कोई स्त्री नहीं. और सारी बातचीत अरबी और फारसी में। मुझे भारत से ही हिदायत दे दी गई थी कि सिर ढ़कना है, जो मुझे बिल्कुल नहीं भा रहा था। लेकिन दूसरे देश में जाकर नियम तोड़ने की हिम्मत भी नहीं थी. मैंने होटल में चीनी अमेरिकन महिलाओं को देखा, वे भी स्कार्फ से सिर ढ़ंके थी. और नीचे तक गाउन सा पहने थी। चीन से ईरान के लिए वीसा भी नहीं होता है। और चीन से आने वाली महिलाएँ व्यापार के कारण आई थीं। हालांकि चीन में भी भाषा की समस्या होती है, लेकिन व्यापार से सम्बन्ध रखनेवाली स्त्रियाँ अच्छी अंग्रेजी बोल लेती हैं।

मैंने एक बात और देखी कि हालांकि मुझे दुभाषिया दे रखा था, लेकिन उसे कार्यक्रम के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती थी। लगता था कि आर्डर कही और से आता है, कहाँ से आता है, यह मालूम नहीं। क्यों  कि अधिकतर कार्यक्रम बदलता था।

हाँ तो ईरान में जहाँ अंग्रेजी तक का शब्द सुनाई नहीं देता, वहीं मुझे जब हिन्दी सुनाई दी तो मैं चौंक गई, हुआ यूँ कि हम लोग होटल से सभागार में कार्यक्रम के उद्घाटन के लिये जा रहे थे मैं किसी सवाल का अग्रेजी में जवाब दे रही थी तो एक आवाज कानों में पड़ी,
बहन, आप हिन्दुस्तान से हैं क्या?
मैंने चौंक कर मुड़ कर देखा तो सामने की सीट पर पायजामा कुर्ता, जिसे हम पठानी वेषभूषा के रूप में जानते हैं, एक कद्दावर सज्जन दिखाई दिये। वेशभूषा में बालीवुड के पठान सा था। मैंने उन्होंने से पूछा कि आप ने कैसे समझा कि मैं हिन्दुस्तान से हूँ. तो बोले की आपका लहजा भारतीय है.. वे काला चश्मा लगाये हुए थे,लेकिन कुछ ही वक्त में मुझे पता चल गया कि वे देख नहीं पाते हैं। फि तो वे मुँबोले भाई बन गये... काफी बाते हुई उन से।
वे बड़ी खूबसूरत हिन्दी बोल रहे थे, वह हिन्दी जो मैंने अपने मामा और माँ से सुनी थी, उर्दू के शब्दों के खूबसूरत उच्चारणो के साथ‍.
कार्यक्रम में उन्होंने वेहद बुलन्द आवाज में खूबसूरत नग्मा गाया, जिससे सारा सभागृह आनन्दित हो उठा।
कार्यक्रम के बाद वे कहने लगे कि बहन, मैं आप से कुछ अर्ज करना चाहता हूँ,....आप मेरी बात अपने मुल्क तक ले जायें जिससे दुनिया में अमन और चैन बना रहे।
रात को उनसे बात हुई तो वे कहने लगे... देखिये हम बलूचिस्तान के उस हिस्से से हैं, जो ईरान के कब्जे में है, हमारा दूसरा भाग पाकिस्तान में रह गया है, मैं अपने उन भाइयों की बेकरदीदी पर आँसूओं रोता हूं। हमारे इतिहास के बारे में शायद ही किसी को मालूम है. बलूची प्राविंस ने नौ साल तक जिन्ना को फीस दी थी, जिससे वे हमारे लिये ब्रिटिश से मुकदमा लड़े की बलूचिस्तान को अलग प्राविन्स के रूप में स्थान दिलवाने के लिये। जब ब्रिटिश जाने लगे तो ग्यारह अगस्त को बलूचिस्तान को स्वतंत्रता मिली, चौदह को पाकिस्तान को और पन्द्रह को भारत को,... लेकिन केवल नौ महिने के भीतर ही एक हिस्से को पाकिस्तान ने हड़प लिया और दूसरे को ईरान ने। ईरानी हिस्सा फिर भी खुशहाल है लेकिन पाकिस्तान वाले हिस्से में अपने भाइयों की दुर्गति पर मैं खून के आँसू रोता हूँ....
फिर कहने लगे कि दुनिया में यदि हिन्दू कहीं सुरक्षित हैं तो केवल बलूचियों के साथ, हमारे यहाँ बहुत से मन्दिर हैं, गुरुद्वारे हैं, हम अपने हिन्दु भाइयों की बहुत इज्जत करते है....
हाँ बाद मैं मैंने उनकी संस्कृति की ओर बात मोड़ दी तो वे लहने लगे, कभी आइये हमारे मुलुक, हम ही हैं जिन्होंने अपनी संस्कृति बचा कर रखी है, और भाइचारा भी रखते हैं, दूसरे इस्लामिक देशों की तरह नहीं जो लिबास अंग्रेजियत का पहनते हैं और उनसे नफरत करते हैं..
जाना तो है बलूचिस्तान, जरूर ही जाना है

हम पांच के समूह मैं अकेली महिला थी, तो दो जवान लड़के , जिन्हें एक भी शब्द अंग्रेजी का नहीं आता, मुझे एस्कोर्ट करते। मैं पहले एडिनबरा आ दि की यात्रा अकेले कर चुकी थी, तो मुझे अजीब सा लगता। हालांकि मैडिलिन में हमे अकेले आने जाने में पाबन्दी थी, जिसका कारण सुरक्षा था, लेकिन हमारे साथ अधिकतर लड़कियाँ होती थी, जो मित्रवत बाते करती चलती।

हम लोगो को पहले बाजार ले जाया गया। जैसा कि ईरानी तुर्की बाजारों की विशेषता होती है, बाजार वैसा ही था, लेकिन तभी हमें लड़ाई झगड़े की आवाज सुनाई दी , तो हमें तुरन्त एस्कोर्टकरके बाहर ले आया गया, और वापिस होटल आ गये। शाम को दूसरा कविता पाठ था, किसी कल्चर सेन्टर में। लेकिन उस पाठ में मेरी हिस्सेदारी नहीं थी, जब भाषा अनजान हो और अनुवाद की सुविधा ना हो तो लम्बे वक्त बैठना मुश्किल हो जाता है, मैं हाल से बाहर निकल कर चहल कदमी करने लगी। तभी देखा कि हमारे एस्कोर्ट समूह में से एक जन मेरे पीछे पीछे आकर मेरे साथ घूमने लगे। वे भाषा नहीं जानते थे, शायद चौकीदारी कर रहे थे, मुझे हंसी भी आई, गुस्सा भी। खैर वहाँ तरह तरह के खूबसूरत परिन्दे थे, मैं उन्हे ही देखती रही, लाइब्रेरी भी देखी। एक बैग भी खरीदा।

निसन्देह वैश्विक साहित्यिक सोच के अनुरूप अरब और इस्लामिक देशों के साहित्यकार भी साम्यवादी सोच को महत्व देते हैं, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे इराक के कवि अलि और अरबेनिया के कवि अजरुद्दीन के बारे में पता चला कि वे सक्रिय राजनीति में है, जहाँ अलि अल शाह मेम्बर आफ पार्लिया मेन्ट हैं वही अजरुद्दीन मेयोबि मन्त्री भी रह चुके हैं।

अलि अल शाह ने स्विटजर लैण्ड में पढ़ाई की है, इसलिये वे अंग्रेजी से वाकिफ है, लेकिन अजरुद्दीन मेयोबि मात्र अरबी और थोड़ी बहुत फ्रैंच बोल पाते थे। लेकिन सम्वाद के लिये खुलापन अजरुद्दीन मेयोबि में था, वे भारतीय राजनैतिक परिवर्तन से वाकिफ थे।
मैंने उन से पूछा कि आप लेखन, पत्रकारिता और राजनीति को एक साथ कैसे सम्भाल पाते हैं, क्यों कि तीनों चीजें तीन अलग दिशाओं में जाती हैं तो उन्होंने बड़ा सटीक जवाब दिया‍

आम जनता विचारधारा को नहीं देखती, उसके लिये सड़क, मकान, रोजगार, जैसे मसले अहम होते हैं, इसलिये उसे अलग कर देखना बेफकूफी है.... हाँ लेखक के रूप में मुझे ध्यान रखना है कि मेरी वैचारिक दृष्टि प्रभावित तो नहीं हो रही है। पत्रकार के रूप में मेरे सामने केवल यथार्थ रहता है....


शाम को मुझे एक कवि मित्र के घर खाने पर बुलाया गया था। जब मैं घर पहुंची तो मालूम पड़ा कि यहाँ घर के भीतर और बाहर का माहौल बिल्कुल अलग है, घर मे् स्त्रिया विदेशी परिधान पहने थी,हंसी मजाक चल रहा था, और सब जिन्दगी को साधारण तरीके से एन्जाय कर रहे थे। रात से पहले मुझे होटल में छोड़ दिया गया, अब मेरा मूड कुछ बेहतर था।

दूसरे दिन हमे एक कालेज ले जाया गया, जहाँ अरबी विभाग में कुछ कार्यक्रम था, मेरे अलवाा अन्य सब अरबी जानते थे, इसलिए वे सब भाग लेते रहे... मुझे घुटन होने लगी, क्यों कि मेरे लिए अरबी फारसी समान था. तो मैं बाहर आकर लड़कियों से बात करे की कोशिश करने लगी। कुछ लड़कियाँ अंग्रेजी विभाग की थी, वे बात करने लगी, तभी मेरे अनुवादक फिर से बाहर आये, और मुझे अन्दर आने के लिये कहने लगे, मैंने कहा कि मैं यही हूँ, लोगो को देख रही हुँ,, बस, कहीं नहीं जान वाली हूँ।
हम लोग  "वार हाउस' हैं जो इराक ईरान की कहानी के तथ्य को इस तरह से प्रस्तुत करता है कि लोगों में नफरत की आग ना बुझ पाये. हर चौराहों पे इराक ईरान युद्ध के शहीदो की मूर्तियाँ थी,
एक कवि शाहरूख ने पिछले दिन ही  बताया की समकालीन ईरानी कविता मुख्यतया युद्ध कवितायें ही हैं।
हर स्थानीय फिल्म युद्ध को घटना बनाती है। आज भी नवयुवकों को पढ़ाई के बाद फौज में कम से कम3-4 साल काम करना पड़ता है, इजराइल की तरह....
वे चीन के प्रति नरम है, भारत को भी नरम दृष्टि से देखते हैं,,
वहां जाकर मुझे प्रेस टीवी देखते वक्त पहली बार ( मेरा अज्ञान है यह , मानती हूँ) पता चला की एक ऐसा समुदाय हैं जो अपने को मुस्लिम तो मानता है, लेकिन डायरे्क्ट खुदा का बन्दा। और शिया सुन्नी दोनों के खिलाफ, कुछ कुछ इसाई धर्म के "बन्दोकोस्त समुदाय" की तरह जो अन्य ईसाइयों की तरह ना क्रिसमस मनाते हैं, ना गुड फ्राइडे।
मुझे ईरान की यह रणनीति बेहद चौंकाने वाली लगी कि वे इराक की मदद को तैयार हो गये, फिर समझ में आ गया कि वे अमेरिका के प्रभूत्व को चुनौती देने को और अपने धर्म स्थान की रक्षा के लिये तैयार हुए होंगे...
राजनीति बेहद चक्करदार बन्द गलियाँ है, भूल भुलैया भी नहीं....

शाम को फिर से कविता पाठ था, इसमें मुझे भी बोलना था, यह एक सुन्दर सांस्कृतिक केन्द्र में था। इसके बाद मेरी मित्र का भाई मुझे लेने आया तो अनुवादक महोदय बड़े नाखुश हुए, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वे एक साठ से उपर की महिला को बन्दिशों में क्यों रखना चाह रहे थे।
ईरानी लोग बहुत मेहमानबाज होते हैं, घर के भीतर महिलाएँ स्वतन्त्र होती है, आराम से पाश्चात्य परिधान पहन लेती हैं, लेकिन जब फोटों खींचने की बात हुई तो मित्र की माँ जो मेरी ही उम्र की थी, चादर ओढ़ने चली गई। वे वैज्ञानिक थी, और भारत में भी रही हैं। बेटी यूरोप में रह रही, बेटा भी पढ़ रहाहै, लेकिन ईरान के कायदे के अनुसार उसे सेना में नौकरी करने के नियमका पालन करना जरूरी था। ना करने के लिए काफी बड़ा फाइन भरना पड़ता है, मुझे वह बच्चा बड़ा भोला सा लगा, समझ ही नहीं आया कि वह सेना में क्या कर सकता है।

उन्होंने मेरे साथ काफी कुछ भेंट  भी बांध दी।

ईरान के ही प्रेस टी वी के माध्यम से मुझ तक बी जे पी जीत की खबर मिली।
अन्य टी वी चैनल उस पंच सितारा होटल में भी निषेध थे. एक संवाद जरूर दिखाई दिया जिसमें यू के स्थित पाकिस्तानी रिपोर्टर मोदी सरकार खतरे गिना रहा था और यूएस स्थित भारतीय रिपोर्टर लगभग बचाव सा कर रहा था.
मुझे डर था कि स्थानीय इस्लामिक सरकार भारतीय सरकार के नये चेहरे से कुछ खफा तो होगी, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब अधिकतर लोगो ने मुझे नई सरकार के लिये बधाई दी, भाषा के कारण सम्वाद तो हो नहीं पाया।
लेकिन बाद में एक कवि पत्रकार से दुभाषिये की मदद से सम्वाद हुआ तो आश्चर्य जनक बाते सामने आई, उनका कहना था कि भारत का झुकाव अमेरिका की तरह बढ़ता जा रहा था, वह जिस तरह से पेलिस्तान को नकार के इजराइल की तरफ जा रहा था वह भी दुखदायी था। हमे भारत के हिन्दुत्व से कोई खतरा नहीं, क्यों कि इतिहास का कोई भी दौर नहीं बताता कि भारत ने दूसरो की जमीन हड़पने के युद्ध किये हों...
हम तो यही आशा करते हैं कि भारत अपनी विदेश नीति को अपनी समझदारी और अपने पुराने रिस्तों से देखे, जैसे कि इन्दिरा गान्धी के वक्त तक होता रहा...
मैंने एक भी व्यक्ति नहीं देखा जिसने जवाहर या इन्दिरा का उल्लेख नहीं किया, वे सब उन्हे दुनिया की सक्षम और खूबसूरत महिला नेता के रूप में याद कर रहे थे,,,
इरान और भारत का नस्ली रिश्ता ही होगा कि वे सब इसकी ओर आशा की नजर से देख रहे हैं..

अगला दिन आखिरी दिन था, जब अन्तिम समारोह होना था। मेरे अनुवादक ने कहा कि सुबह हम मीनार देखने जायेंगे, फिर होटल आकर खाना खाकर शाम को समापन कार्यक्रम में जायेंगे।
मैंने सामान्य सी वेशभूषा निकाल ली।

 हम लोग मीनार देखने गए। कहाँ जाता है कि यह विश्व  की सबसे ऊंची मीनार है। यह स्थान पर्यटन के लिए बेहतरीन थी। हर तरह की जानकारी, फोटों खींचने की सुविधा, तरह तरह के शीशे, शायरों की मूर्तियां, और ना जाने क्या क्या..मेरे साथ कोई ना कोई हमेशा बना रहता था। एक जगह मैं कुछ देख रही थी तो एक महिला मेरे पास आकर अच्छी अंग्रेजी में बोलने लगी, आप इणदिया से हैं क्या?

मैं यहां सर्जन हूँ,लेकिन यहाँ जो पर्दा सिस्टम है उससे बहुत परेशान हूँ, यदि मैं विरोध करूं तो मेरे पति ही पहला आदमी होगा जो मेरा मर्डर कर देगा.... आप हमारी आवाज बाहर ले जायें।

मैं यह सुन कर थर्रा कर रह गई,,,,
मैने देखा था कि ईरानी लड़कियों में गजब का नूर होता है, उन से  ज्यादा फैशन को कोई नहीं समझ पाता होगा, अपने काले लिबास में भी वे इतने नये प्रयोग कर लेती हैं कि वह उनके दिपदिपाते रंग से और दमकने लगता है, और सारे रंगों को नाखूनों में समा देती हैं।
उनके बन्द जूते फैशन की नई इबारत पढ़ते हैं, एक लट को भी बाहर झांकने का मौका मिला तो वह सतरंगी हो उठती है. अपने को इतना दुबला रखती है कि चेहरा भरा भरा लेकिन स्याह तम्बू से तनी देह सटाक सी लगती है
ना जाने कमबख्ते खुदा का सारा नूर ही चुरा लाई
और आप उन्हे हर जगह देख सकते हैं, वैज्ञानिक के रूप में, आर्मी में, कालेजों में, दफ्तरों मे, केनवास पर, कागज पर, एयर होस्टेज के रूप में , गाइड के रूप में, और तो और रात्री होटलों में बैरों के रूप में भी
सर से हिजाब उतरता नहीं, लेकिन खुदा का नूर चढ़ता रहता

ओह तो यह कारण है कि मुझे इस तरह से रखा जा रहा है कि मैं किसी से बात ना करूं, वहाँ महिलाओं में जो घुटन है, वह महिलाओं से ही बाँटी जा सकती है।

मीनार मे जा कर पता  चला कि हम होटल ना जाकर कल्चर सेन्टर जा रहे हैं, मुझे गुस्सा आया, लेकिन क्या कर सकती थी, मैंने मीनार में दूकान से एक अच्छी ईरानी ड्रेस खरीदी, और एक ऊंट की खाल का थैला भी।

जब हम कल्चर सेन्टर पहुंचे तो मैंने देखा कि ईरानी कला आज भी बेहद जबरदस्त है, लोग बेहतरीन कार्य कर रहे हैं।

जब हम कार्यक्रम की जगह पहुँचे तो मैंने कुछ अध्यापिकाओं को देखा, जिनसे हम लोग पिचले दिन मिल चुके थे, मैंने एक से कहा कि मुझे बाथरूम जाना है,

वहा जाकर मैंने उन्हें बताया कि मै कपड़े बदलना चाहती हूँ, क्यों कि यह ड्रेस , जो मैं पहने हूँ कार्यक्रम के अनुरूप नहीं लग रही है। उन्होंने मदद की। जब मैं लौटी तो मैंने देखा कि अनुवादक कुछ नाखुश है। कार्यक्रम भव्य था, ईरान के सांस्कृतिक मन्त्री भी उपस्थित थे। बार बार कैमरा हम लोगो पर आ रहा था। कार्यक्रम के बाद मैं चुपचाप बाहर आ गई। तभी किसी टी वी वाले ने मुझे बाइट देने को कहा, लेकिन उससे पहले मेरा बाल ढ़ंक दिए गए।

इतनी देर में अनुवादक दौड़ता आया और बिगड़ने लगा कि आप बार बार कहाँ खौ जाती हैं,? मैं चुप रही,,,,,

जब मैं बस मैं बैठी तो वह मुझे से कहने लगा कि आपने उन अध्यापकों को कहा कि मैंने आपको ठीक कपड़े नहीं पहनने दिए, क्या मैं आपका असिस्टेन्ट हूँ, अब ेरा सब्र का बाँध टूट गया था,,,, मैंने लगभग िल्लाते हुए कहा कि ... यू आलरेडी मेड माई लाइफ हेल, नाऊ गो अवे....

बस में सन्नाटा छा गया,,

वापिस लौट कर मैं अपने कमरे में चली गई,,,, तभी दफ्तर से फोन आया कि मैडम , हम आप से माफी मांगते हैं, आप नाराज ना हों... आपका अनुवादक बदल दिया जायेगा,,,,, मैंने पूरी घटना बताते हुए कहा कि मेरा इरादा किसी को परेशान करना नहीं था, लेकिन मुझे समस्या हो रही है, क्या कि मुझे पता ही नहीं कि आपका अगला कदम क्या है....

खैर दूसरे दिन हमें शीराज  परसापोरिस देखने  जाना था, अब साथी कवियों से बातचीत आरम्भ हुई, क्यों कि मैंने आयोजकों से कहा कि मैं कवि हूँ, ये क्या संस्कृति है कि दूसरे कवि पुरु     होने के कारण एक झुण्ड में रहते हैं, मैं अकेले छोड़ दी जाती हूँ.... लोगों को बात समझ आई, और दो कवियों से सम्वाद होना शुरु हुआ

मुझेपता चला कि अन्य कवियों में दो अपने को साम्यवादी कहते हैं,  मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे इराक के कवि अलि और अरबेनिया के कवि अजरुद्दीन के बारे में पता चला कि वे सक्रिय राजनीति में है, जहाँ अलि अल शाह मेम्बर आफ पार्लिया मेन्ट हैं वही अजरुद्दीन मेयोबि मन्त्री भी रह चुके हैं।

अलि अल शाह ने स्विटजर लैण्ड में पढ़ाई की है, इसलिये वे अंग्रेजी से वाकिफ है, लेकिन अजरुद्दीन मेयोबि मात्र अरबी और थोड़ी बहुत फ्रैंच बोल पाते थे। लेकिन सम्वाद के लिये खुलापन अजरुद्दीन मेयोबि में था, वे भारतीय राजनैतिक परिवर्तन से वाकिफ थे। अलि इराक के हैं, और उनकी सोच का दायरा बड़ा बन्द सा दिखाई पड़ा,,,,,

मैंने अजरुद्दीन मेयोबि से पूछा कि आप लेखन, पत्रकारिता और राजनीति को एक साथ कैसे सम्भाल पाते हैं, क्यों कि तीनों चीजें तीन अलग दिशाओं में जाती हैं तो उन्होंने बड़ा सटीक जवाब दिया-आम जनता विचारधारा को नहीं देखती, उसके लिये सड़क, मकान, रोजगार, जैसे मसले अहम होते हैं, इसलिये उसे अलग कर देखना बेफकूफी है.... हाँ लेखक के रूप में मुझे ध्यान रखना है कि मेरी वैचारिक दृष्टि प्रभावित तो नहीं हो रही है। पत्रकार के रूप में मेरे सामने केवल यथार्थ रहता है....



आज भी वहीं, प्लान क्या है, किसी को मालूम नहीं, पहल कहा गया कि सामान यहीं छोड़ना है, फिर कहा गया कि साथ ले लो, लगता था कि कहीं से देश  रहा है, और बदला जा रहा है। खेर जब हम हवाई अड्डे पहुँचे तो देखा कि यहाँ ज्यादा सुरक्षा है, हवाई जहाज काफी पुराना सा लग रहा था, लगता था कि डोलता जा रहा हो, दो, तीन घण्टे की फ्लाइट रही होगी, यहाँ आते ही मुझे एक लड़की अनुवादक मिल गई, सच मुझे बहुत खुशी हुई, क्यों कि अब मैं आराम से उससे बतिया सकती थी।
होटल बहुत ठीक ठाक ही था। हम लोगों से कहा गया कि हम लोग जलदी से तैयार होकर बाहर निकले, खाना खाने जाना है।

शीराज ईरान का सांस्कतिक प्रान्त है, जो शायरी, संस्कृति और फूल और सुरा के लिए प्रसिद्ध है। इसका इतिहास चार हजार वर्ष पहले तक जाता है। यहाँ विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक पनपी थी। चिंगेज खान के आक्रमण क बाद यह इस्लाम का केन्द्र भी बना।  हम लोग एक होटल मे गए, जहाँ पर तरह तरह के व्यंजन थे, और रोटी और पानी मेज पर रखे थे। इरान में आपकों मुफ्त में रोटी मिल सकती है। खाने के इतने व्यंजन कि गिने ना जा सके। तन्दूर कमरे का आकार का था, जिसमें  बड़ा सा उल्टा तवा रखा था, ए आदमी उस पर आटे का बड़ा सा लौंदा फैंकता, जो पूरे तवे पर फैल जाता, दूसरा उसे पलट कर बाहर निकालता, बाहर निकलने पर उसके टुकड़े कि॓ जाते़ हम लोगों को इमाम जादे हजाह  ले जाया गया, फिर लोकल बाजार भी।

शाम को हम लोग ईरान के खास ुनिया के सबसे पुराने  वकील बाजार में शापिंग करने गये, यह सबसे ज्यादा मजेदार अनुभव था, बाजार क्या, मानों सिम सिम दुनिया था, क्या चमक, क्या खुबसूरती, मन खुश हो गया।

रात को एक ऐसे होटल गये जहाँ पर भारत में राजस्थानी धाणी होटलों की तरह छटा थी, जगह जगह मचाइयाँ बिछी थी, लोग परिवार के साथ थे, मधुर गाने बज रहे थे, महिलाएँ झूम रहीं थीं. मैंने देखा कि बैरा भी लड़कियाँ थी, जिन्होंन सुर्ख लिप्सटिक लगा रखी थी,  सिर पर स्कार्फ के अलावा और कुछ इस्लामियत के बन्धन में नहीं था, लेकिन मालूम पड़ा कि वहाँ जगह नहीं बची है, तो हम लोग लौट कर दूसरे होटल की ओर गये।

दूसरे दिन हम परसापोलिस की ओर गए, एक विशाल संस्कृति के महान अवशेष,,, विशालकाय सीढ़ियाँ, दीवारों पर चित्र, ऊंचे खम्भे, और उन पर कामधेनू सी सुन्दर गायों की मुर्तियां.... इतना बड़ा शासन, जो गणित, आर्कीटेक्ट, मूर्तिकला में निपुण था, जहाँ दुनिया भर से लोग आया जाया करते थे, वह कि मतान्धता के चलते खत्म हो गया। मन अवसाद से भर गया।

समस्या यह भी है कि धार्मिक कट्टरता के चलते इस स्थान पर शोध भी अधिक नहीं हो पा रहा है।

मैं वैदिक संस्कृति की भगिनि इस संस्कृति के ह्वास से दुखी थी, शाम को हम फिर शीराज चल देते हैं।

तीसरा दिन माल में बीतता है, हमारे साथ आये मिस्र के कवि सबसे ज्यादा शापिंग कर रहे थे, मैं लड़कियों को देख रही थी, किस तरह से अपने फैसन को आबाद किये हुए है, कितनी खूबसूरत हैं,,,

आखिर में हम हाफिज की मजार पर जाते हैं,

इस यात्रा का सबसे बड़ा पड़ाव, कब्र पर हाथ रख मंगत मांगनी है,

क्या मांगू, दुनिया के लिए चैन शान्ति?

शायरी का उल्लास ?

या फिर संस्कृतियों का पुनरागमन?

शीराज से लौटते ही हमे अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अद्डे पर पहुंचना है,,,,, संभवतया, हमारे आयोजकों को भी चैन की सांस मिली होगी,,,,, मुझे तो कुछ अच्छा लग ही रहा था,,,,

हवाई जहाज में बैठते ही सिर से लबादा उतारा,,,, लगा कि मैं वापिस अपने व्यक्तित्व में लौट आई हूं

ईरान, तुम मुझे बहुत पसन्द आये,,,, लेकिन यदि तुम जनाना धड़कनों को भी समझते तो क्या बेहतर होता !!!




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