Wednesday, November 30, 2016

सान्त्र्यागो, स्पेन की तीर्थ नगरी



किले

मूझे बूढ़े किले से मिलने जाना है
और यह जाना मुझे भा नहीं रहा
शायद इसलिये कि मैं इन किलों में
बंधी जंजीरों से बतिया चुकी हूँ
या फिर इसलिये कि इनकी प्राचीरें
मुझे सहज होने से रोकती हैं
लेकिन यह बूढ़ा किला है
जिसकी दीवारों पर लगी काई
पत्थरों से कहीं ज्यादा मजबूत है
मुझे झिझकता देख, उन्होंने बताया
कि ये अब किला नहीं हैं
किले से पिंजरे तक होती हुई इसकी
आत्मा बस भग्नावेश संजो रही है
जिन्होंने भी किले देखे हैं, वे जानते हैं कि
इनके भीतर क्या होता है
कुछ पत्थरी प्राचीरें, कुछ तंग खिड़कियाँ
कुछ गलियारे, कुछ गुम्बदे,
दुश्मन को खोजती पत्थरी आँखें
विश्वास से कुछ ज्यादा अविश्वास
फिर रहस्यमयी सुंरग, चतुर
राजनयिक के बचाव के लिये
जिन्होंने भी किलों का इतिहास पढ़ा
वे जानते हैं कि किले
अधिकतर पराजित होते हैं
या तो गिराये जाते हैं, या फिर खुद
ढ़ल जाते हैं, मिट्टी में धीमे धीमे
फिर भी लोग किलों को देखते हैं
मेरे पास अब किला ना देखने की कोई बजह ही नहीं है

*

उनके काले कोटों पर लगे झूठे तमगे
उन्हीं की तरह झमक उठते हैं
जब अनजाने पाहूनो की
महक उन तक पहुँचती है
वे संभाल लेते हैं साज, और सजा
लेते हैं सुर , जहाज के आने से पहले
बिछा देते हैं सुरों का गलियारा
वे थामते हैं अनजाने हाथ, धुनों पर
फिसलने को, खोलते हैं ढपली का पेट
अपने बच्चों का पेट छिपाने को
जमीन से छुलने से पहले
पहुँचा देते हैं गमक सी मींड़,
कदमों की थापों के साथ
जहाज की छत तक,
नाचते हैं, थिरकते हैं, मानों कि
कोई सगा लौट रहा हो
बरसों के प्रवास के बाद,
गले मिलते हैं अनजानों से
कि अपने भी ना मिल पायें
जिस अनजाने पाहुने आते हैं
स्ट्रीट सिंगर के घरों की चिमनी
मछली की गमक को उगलती है
रात बिना साज के ही
गुनगाने लगती हैं

*

पल्लू

बहुत याद आया मुझे आज
मेरी साड़ी का पल्लू
जिसे कभी भी कमर पर खोंच कर
मैं युद्ध की सूचना दे सकती थी
जिसका सिर पर रहना
मेरी तमीज की पताका होती थी
वही पल्लू,
जिसने मुझे कभी घाम से बचाया
कभी मेरे दागों को पौंछा
और कभी मेरे पसीने को सुखाया
यह वह था, जो बच्चों से
संवाद की डोर था,
जिसमें जिन्दगी की चाभी
लटका करती थी
वही पल्लू , जो मेरे कदमों में
उलझा, जरा बहुत रूठा
फिर जा बैठा पुरानी
बन्द रहने वाली अलमारी में
विदेशी तपन की तीखी बरछी से
कौन बचा सकता है मुझे
मेरी देसी साड़ी के पल्लू के सिवाय


टू ओ क्लाक

यूँ तो वे आज भी निकल आती हैं
एन दो बजे, दुपहरी को तेज देती हुई
अपनी पलकों पर आसमान भर
होंठों को सुर्ख सजा
यूँ तो झुर्रियाँ उनके चेहरों पर
तितली सी मण्डरती रहती है
मैंण्डक हथेलियों पर थरथराते रहते हैं
कमर पर झूकी बोगनविला
पावों में जाकर सो जाती है
फिर भी वे निकल आती हैं
ठीक दो बजे, सूरज से आँख मिलाती हूई
सलेटी कालें रंगों में लालिमा भरती हुई
जीती हुई, जीने का इशारा करती हुई
वे दो बजे की देवियाँ
आज भी खड़ी हैं जवानी के उपवन में

सान्त्र्यागो, स्पेन की तीर्थ नगरी शैक्षणिक नगरी भी रही है, जहाँ यूरोप के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय रहे हैं। युद्ध की विभीषिका के बाद जब यह नगरी शोक में डूबी थी, काले और सलेटी रंगों के अलावा कोई रंग दिखाई ही नहीं देता था, उस वक्त दो वृद्ध महिलाए, जिनमें से एक अविवाहित थी, दूसरी विधवा, दिन के ठीक दो बजे, पूरी तरह से सजधज के विश्वविद्यालय से सटे उपवन में टहलने निकल आती थी, लोग उन्हें टू ओ क्लाक के नाम से पुकारते, युवक भद्दे मजाक भी करते, लेकिन वे मानों अपनी उपस्थिति से शोक के रंग को मिटा देना चाहती थी। आज भी उपवन में दोनों की मूर्तियाँ लगी हैं

----------


अलारिज, स्पेन की यह किलानुमा इमारत, जिसमें खिड़की का नामोनिशान तक नहीं है , एक ऐसी कुख्यात ननरि है , जिसके भीतर हवा तक नहीं पैठ सकती थी, बाहर का कोई भी जन भीतर किसी का चेहरा भी नहीं देख सकता था। और मेरे होस्ट ने मुझे बताया था कि यहां तरह तरह की स्त्रियों को एक तरह से जेल में भेज दिया सा जाता था, यानि कि किसी को अपनी पत्नी से छुटकारा चाहिये, तो वह अपनी पत्नी को यहाँ छोड़कर चला जाता था, क्यों कि उस वक्त उनके धर्म में तलाक नहीं था, किसी को कानो कान भनक तक नहीं पड़ती, कोई स्त्री बाँझ है या पति की निगाह में कुलटा, वह भी यहाँ छोड़े दी जाती हैं। इस किले के भितर ये स्त्रियाँ क्या करती थी, इनके साथ कैसा व्यवहार होता था, किसी को मालूम नहीं, हो सकता है लोकल साहित्य मे कुछ जानकारी हो, जिसे हम नहीं जानते,,,

मुझे इस ननरी को देख कर ही झुरझुरी सी होनी लगी, थी, लगा था, ना जाने कितनी प्रेतात्मायें यहाँ आज भी भटक रही है,,,,