Wednesday, March 8, 2017

ईरान के कुछ पन्ने





मैं विरोध करना चाहती हूँ
स्याह पर्दों का
और अपने ऊपर चढ़ा लेती हूँ
सुर्ख लिबास
मुझे उम्मीद होती है
कि मेरा सुर्खपना
उनके स्याह पर एक
सूराख करेगा
सच होती है मेरी उम्मीद
जब एक खातून कहती है
खुदा खैर करे
हम भी आपके से बनेंगे....

.............

कैसे उठाती होंगी
वजन
ये नाजुक इबारतें
उनके
सिर्फ
सिर्फ उनके
खुदाओं का ?????




2014 में ,  मैं ईरान में थी, यह उस वर्ष की चौथी विदेश यात्रा थी, कुछ वर्ष यात्रा प्रिय होते ही हैं, हाँ ईरान यात्रा मेरे लिये स्वप्न प्रिया थी,,,फरवरी में अचानक ईरान एम्बेसी से फोन आया कि इस साल के फज्र पोइट्री फेस्टीवल में आपका नाम चुना गया है, कृपया कुछ कविताए और बायों डेटा भेज दे. मुझे समझ नहीं आया कि दिल्ली में इतने महारथी बैठे हैं तो यह कृपा कैसे हुई... फिर याद आया कि दो हजार पाँच में मेरी कई कविताओं के अनुवाद एक अच्छे इन्टर्व्यू के साथ वहाँ कि प्रमुख पत्रिका में छपी थी, और अनुवादक वही परि थी, जिसकी गाथा मेरे मन में परिकथा बन गई है... संभवतया यही परिपेक्ष्य था।

खैर जब तक फज्र फेस्टीवल का कार्यक्रम शुरु हुआ, मुझे अमेरिका एलिस पार्टनोइ के बुलावे में जाना था, दोनों यात्राओं के बीच वक्त कम था। लेकिन अच्छाई यही थी कि दोनों यात्राओं में टिकिट से लेकर सारे बन्दोबस्त आयोजक ही कर रहे थे। अमेरिका यात्रा के लिए वीसा का बन्दोबस्त करना था, लेकिन ईरान यात्रा में सारा काम वे ही देख रहे थे,,, फिर भी व्यग्रता तो थी, खास तौर से जब दस दिन पहले तक मेरे हाथ में कुछ प्रमाण ना हो... खैर जैसा कि सरकारी कामो में अक्सर होता है,,,, आखिरी सप्ताह में सारी तस्वीर साफ हुई, मुझे मुम्बई जाना था, जहाँ पर ईरान कल्चर सैन्टर मेरी पूरी तैयारी कर रहा था। मुझे बता दिया कि आप होटल मे रहें, और सारा खर्चा हम वहन करेंगे। मुम्बई में पहुंने के बाद यह मेरा सबसे सरल वीसा था, मैं आराम से ईरान कल्चर सेन्टर की चाह पीती रहीं, और वही से मेरा पासपोर्ट एम्बेसी में भेज दिया गया। दो घण्टे के उपरान्त मेरे पास मेरा पासपोर्ट वीसा सब कुछ था, कल्चर सेन्टर का एक कर्मचारी होटल तक छोड़ने तक आया। मेरे टिकिट बिजिनेस क्लास में बुक किये गये थे, तो हवाई जहाज तक पहुंचने में भी कोई समस्या नही... ओमान में पुनः होटल हाजिर,,,,

जब तेहरान पहुँची तो एक घबराहट सी महसूस हुई, बेहद थमी सी हवा थी, घुटी घुटी, हर कोई सिर नीचे किए अपने काम से काम,,, कोई खिलखिलाहट या मुस्कुराहट नहीं. यहाँ तक वीसा चैक पोस्टर भी कर्मचारी आँख तक नहीं मिलाते ,,, यहाँ पर चीन के यात्रियों की अच्छी खासी भीड़ थी, दरअसल चीन और ईरान में बड़ा दोस्ताना सम्बन्ध है.... कुछ घबराहट हुई, क्यों कि समझ नहीं आ रहा था कि कौन से गेट पर पिकअप मिलेगा।

तभी मुझे कुछ लोग हाथ हिलाते दिखाई दिये,,, मैं पास पहुँची तो पूछा,,,, इन्दिया,,,, मैंने सिर हिलाया, फिर उन्होंने मेरे नाम का कार्ड दिखाया,,,, वे मुझे लेकर सीढ़ी पर चढ़ने लगे,,, मैंने देखा कि सीढ़ी के ऊपर एक विडियों ग्राफर खड़ा पिक्चर ले रहा है, मुझे लगा कि कोई नेता होगा,.. मैं पीछे मुड़ कर देखने लगी तो पीछे कोई नहीं था... तब समझ आया की यहाँ कवि को भी इतना सम्मान दिया जाता था,

फज्र फेस्टीवल में इरान के कम से कम चारसौ कवि भाग लेते हैं, और विदेश से केवल पाँच बुलाये जाते हैं, इस बार भारत, मिश्र , इराक , बलूचिस्तान और अफ्रीका से पांच कवि चुने गये। अपने देश के कवियों को सम्मान देना अच्छी ही बात है।

हमें लेकर सात सितारा होटल आाजादी होटल ले कर आया गया, जहां पर इरान कल्चर सैन्टर के अनेक अधिकारी थे। मैंने देखा कि उनमें कोई स्त्री नहीं थी, मुझे अपने दुभाषिये से परिचित करवाया गया, और भोजन के लिये पूछा, मैं बेहद थकी थी और खास भूख भी नहीं.... भाषा के परिचय के अभाव में कुछ सम्वाद समझ नहीं आ रहा था, बाकी चार कवि अरबी जानते थे, अतः अरबी फारसी में सम्वाद की समस्या नहीं थी,, लेकिन मेरे लिये तो अरबी फारसी सब एकसी थी, इतना ही नहीं वहाँ स्त्री पुरुष का भेदभाव साफ दिखाई दे रहा था, ना किसी ने हाथ मिलाया, ना ही कोई मेरे साथ बैठा, अनुवादक हल्की बात का तो अनुवाद कर देता, लेकिन कोई गम्भीर बात होती तो चुप रह जाता,,,,, इतने शब्दों के बीच भी जब मन के सामने कोई तस्वीर ना खुले तो भाषा की सीमा समझ में आती है।

कार्यक्रम शाम से था, इसलिए सुबह के वक्त हमे गोलेस्तान पेलेस में लेजाया गया, जों ईरान के विस्थापित राजा का था, महल में यूरोपीय छाप थी. महल हमेशा एक से होते हैं, और हर स्थान का राजा दूसरे देशों से कीमती सामान लाकर अपने महलों में भरते रहे हैं, राजस्थान, हैराबाद आदि के महलों में भी यह स्थिति रही थी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण रहा. Omidvar brothers में से एक से मिलना। ये दोनों भाई १९५० में विश्वभ्रमण के लिए निकले थे, अधिकतर यात्रा कार या मोटर साइकिल से पूरी की थी। उनके सफर के चित्र प्रदर्शित थे। ओमिदवार भाई भारत भी आये थे, और नेहरू जी से मिले थे। इस वक्त एक भाई ईरान में थे, और दूसरे संभवतया बाहर थे। लेकिन इस उम्र में भी वे बहुत स्वस्थ लग रहे थे। उनकी वह कार, जिसमें उन्होंने सफर किया था, आज प्रदर्शन का हिस्सा बन गई है, लेकिन वे आज भी युवाओं के साथ काम करते हैं।

 यूँ तो कार्यक्रम बहुत भव्य था , बेहतरीन मंच, खूबसूरत , बेजोड़ गायकों की टोली, लेकिन मंच पर एक मात्र स्त्री मैं ही थी, ‌और मुझे से बात करने वाला कोई नहीं। एक बात मुझे अच्छी लगी कि उन्होंने पहले अपने देश के कवियों से कविता पढ़वाई, अन्त में बाहर से आये हम लोगों से। जबकि हम अपने देश में बाहर के लोगों को देख अपनों की इज्जत भुला बैठते है्।

कविता पाठ के बाद अनुवाद पढ़ा गया, और करीब करीब सब ठीक ही था।

बेहतरीन होटल, कमरे मे फ्रिज खाने से लबालब, जो चाहे वो मंगा कर खाया जा सकता था, फिर भी मेरा मन नहीं लग रहा था, क्यों कि कवि समाज वाली भावना ही गायब थी. लोगो के हुजूम में कोई स्त्री नहीं. और सारी बातचीत अरबी और फारसी में। मुझे भारत से ही हिदायत दे दी गई थी कि सिर ढ़कना है, जो मुझे बिल्कुल नहीं भा रहा था। लेकिन दूसरे देश में जाकर नियम तोड़ने की हिम्मत भी नहीं थी. मैंने होटल में चीनी अमेरिकन महिलाओं को देखा, वे भी स्कार्फ से सिर ढ़ंके थी. और नीचे तक गाउन सा पहने थी। चीन से ईरान के लिए वीसा भी नहीं होता है। और चीन से आने वाली महिलाएँ व्यापार के कारण आई थीं। हालांकि चीन में भी भाषा की समस्या होती है, लेकिन व्यापार से सम्बन्ध रखनेवाली स्त्रियाँ अच्छी अंग्रेजी बोल लेती हैं।

मैंने एक बात और देखी कि हालांकि मुझे दुभाषिया दे रखा था, लेकिन उसे कार्यक्रम के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती थी। लगता था कि आर्डर कही और से आता है, कहाँ से आता है, यह मालूम नहीं। क्यों  कि अधिकतर कार्यक्रम बदलता था।

हाँ तो ईरान में जहाँ अंग्रेजी तक का शब्द सुनाई नहीं देता, वहीं मुझे जब हिन्दी सुनाई दी तो मैं चौंक गई, हुआ यूँ कि हम लोग होटल से सभागार में कार्यक्रम के उद्घाटन के लिये जा रहे थे मैं किसी सवाल का अग्रेजी में जवाब दे रही थी तो एक आवाज कानों में पड़ी,
बहन, आप हिन्दुस्तान से हैं क्या?
मैंने चौंक कर मुड़ कर देखा तो सामने की सीट पर पायजामा कुर्ता, जिसे हम पठानी वेषभूषा के रूप में जानते हैं, एक कद्दावर सज्जन दिखाई दिये। वेशभूषा में बालीवुड के पठान सा था। मैंने उन्होंने से पूछा कि आप ने कैसे समझा कि मैं हिन्दुस्तान से हूँ. तो बोले की आपका लहजा भारतीय है.. वे काला चश्मा लगाये हुए थे,लेकिन कुछ ही वक्त में मुझे पता चल गया कि वे देख नहीं पाते हैं। फि तो वे मुँबोले भाई बन गये... काफी बाते हुई उन से।
वे बड़ी खूबसूरत हिन्दी बोल रहे थे, वह हिन्दी जो मैंने अपने मामा और माँ से सुनी थी, उर्दू के शब्दों के खूबसूरत उच्चारणो के साथ‍.
कार्यक्रम में उन्होंने वेहद बुलन्द आवाज में खूबसूरत नग्मा गाया, जिससे सारा सभागृह आनन्दित हो उठा।
कार्यक्रम के बाद वे कहने लगे कि बहन, मैं आप से कुछ अर्ज करना चाहता हूँ,....आप मेरी बात अपने मुल्क तक ले जायें जिससे दुनिया में अमन और चैन बना रहे।
रात को उनसे बात हुई तो वे कहने लगे... देखिये हम बलूचिस्तान के उस हिस्से से हैं, जो ईरान के कब्जे में है, हमारा दूसरा भाग पाकिस्तान में रह गया है, मैं अपने उन भाइयों की बेकरदीदी पर आँसूओं रोता हूं। हमारे इतिहास के बारे में शायद ही किसी को मालूम है. बलूची प्राविंस ने नौ साल तक जिन्ना को फीस दी थी, जिससे वे हमारे लिये ब्रिटिश से मुकदमा लड़े की बलूचिस्तान को अलग प्राविन्स के रूप में स्थान दिलवाने के लिये। जब ब्रिटिश जाने लगे तो ग्यारह अगस्त को बलूचिस्तान को स्वतंत्रता मिली, चौदह को पाकिस्तान को और पन्द्रह को भारत को,... लेकिन केवल नौ महिने के भीतर ही एक हिस्से को पाकिस्तान ने हड़प लिया और दूसरे को ईरान ने। ईरानी हिस्सा फिर भी खुशहाल है लेकिन पाकिस्तान वाले हिस्से में अपने भाइयों की दुर्गति पर मैं खून के आँसू रोता हूँ....
फिर कहने लगे कि दुनिया में यदि हिन्दू कहीं सुरक्षित हैं तो केवल बलूचियों के साथ, हमारे यहाँ बहुत से मन्दिर हैं, गुरुद्वारे हैं, हम अपने हिन्दु भाइयों की बहुत इज्जत करते है....
हाँ बाद मैं मैंने उनकी संस्कृति की ओर बात मोड़ दी तो वे लहने लगे, कभी आइये हमारे मुलुक, हम ही हैं जिन्होंने अपनी संस्कृति बचा कर रखी है, और भाइचारा भी रखते हैं, दूसरे इस्लामिक देशों की तरह नहीं जो लिबास अंग्रेजियत का पहनते हैं और उनसे नफरत करते हैं..
जाना तो है बलूचिस्तान, जरूर ही जाना है

हम पांच के समूह मैं अकेली महिला थी, तो दो जवान लड़के , जिन्हें एक भी शब्द अंग्रेजी का नहीं आता, मुझे एस्कोर्ट करते। मैं पहले एडिनबरा आ दि की यात्रा अकेले कर चुकी थी, तो मुझे अजीब सा लगता। हालांकि मैडिलिन में हमे अकेले आने जाने में पाबन्दी थी, जिसका कारण सुरक्षा था, लेकिन हमारे साथ अधिकतर लड़कियाँ होती थी, जो मित्रवत बाते करती चलती।

हम लोगो को पहले बाजार ले जाया गया। जैसा कि ईरानी तुर्की बाजारों की विशेषता होती है, बाजार वैसा ही था, लेकिन तभी हमें लड़ाई झगड़े की आवाज सुनाई दी , तो हमें तुरन्त एस्कोर्टकरके बाहर ले आया गया, और वापिस होटल आ गये। शाम को दूसरा कविता पाठ था, किसी कल्चर सेन्टर में। लेकिन उस पाठ में मेरी हिस्सेदारी नहीं थी, जब भाषा अनजान हो और अनुवाद की सुविधा ना हो तो लम्बे वक्त बैठना मुश्किल हो जाता है, मैं हाल से बाहर निकल कर चहल कदमी करने लगी। तभी देखा कि हमारे एस्कोर्ट समूह में से एक जन मेरे पीछे पीछे आकर मेरे साथ घूमने लगे। वे भाषा नहीं जानते थे, शायद चौकीदारी कर रहे थे, मुझे हंसी भी आई, गुस्सा भी। खैर वहाँ तरह तरह के खूबसूरत परिन्दे थे, मैं उन्हे ही देखती रही, लाइब्रेरी भी देखी। एक बैग भी खरीदा।

निसन्देह वैश्विक साहित्यिक सोच के अनुरूप अरब और इस्लामिक देशों के साहित्यकार भी साम्यवादी सोच को महत्व देते हैं, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे इराक के कवि अलि और अरबेनिया के कवि अजरुद्दीन के बारे में पता चला कि वे सक्रिय राजनीति में है, जहाँ अलि अल शाह मेम्बर आफ पार्लिया मेन्ट हैं वही अजरुद्दीन मेयोबि मन्त्री भी रह चुके हैं।

अलि अल शाह ने स्विटजर लैण्ड में पढ़ाई की है, इसलिये वे अंग्रेजी से वाकिफ है, लेकिन अजरुद्दीन मेयोबि मात्र अरबी और थोड़ी बहुत फ्रैंच बोल पाते थे। लेकिन सम्वाद के लिये खुलापन अजरुद्दीन मेयोबि में था, वे भारतीय राजनैतिक परिवर्तन से वाकिफ थे।
मैंने उन से पूछा कि आप लेखन, पत्रकारिता और राजनीति को एक साथ कैसे सम्भाल पाते हैं, क्यों कि तीनों चीजें तीन अलग दिशाओं में जाती हैं तो उन्होंने बड़ा सटीक जवाब दिया‍

आम जनता विचारधारा को नहीं देखती, उसके लिये सड़क, मकान, रोजगार, जैसे मसले अहम होते हैं, इसलिये उसे अलग कर देखना बेफकूफी है.... हाँ लेखक के रूप में मुझे ध्यान रखना है कि मेरी वैचारिक दृष्टि प्रभावित तो नहीं हो रही है। पत्रकार के रूप में मेरे सामने केवल यथार्थ रहता है....


शाम को मुझे एक कवि मित्र के घर खाने पर बुलाया गया था। जब मैं घर पहुंची तो मालूम पड़ा कि यहाँ घर के भीतर और बाहर का माहौल बिल्कुल अलग है, घर मे् स्त्रिया विदेशी परिधान पहने थी,हंसी मजाक चल रहा था, और सब जिन्दगी को साधारण तरीके से एन्जाय कर रहे थे। रात से पहले मुझे होटल में छोड़ दिया गया, अब मेरा मूड कुछ बेहतर था।

दूसरे दिन हमे एक कालेज ले जाया गया, जहाँ अरबी विभाग में कुछ कार्यक्रम था, मेरे अलवाा अन्य सब अरबी जानते थे, इसलिए वे सब भाग लेते रहे... मुझे घुटन होने लगी, क्यों कि मेरे लिए अरबी फारसी समान था. तो मैं बाहर आकर लड़कियों से बात करे की कोशिश करने लगी। कुछ लड़कियाँ अंग्रेजी विभाग की थी, वे बात करने लगी, तभी मेरे अनुवादक फिर से बाहर आये, और मुझे अन्दर आने के लिये कहने लगे, मैंने कहा कि मैं यही हूँ, लोगो को देख रही हुँ,, बस, कहीं नहीं जान वाली हूँ।
हम लोग  "वार हाउस' हैं जो इराक ईरान की कहानी के तथ्य को इस तरह से प्रस्तुत करता है कि लोगों में नफरत की आग ना बुझ पाये. हर चौराहों पे इराक ईरान युद्ध के शहीदो की मूर्तियाँ थी,
एक कवि शाहरूख ने पिछले दिन ही  बताया की समकालीन ईरानी कविता मुख्यतया युद्ध कवितायें ही हैं।
हर स्थानीय फिल्म युद्ध को घटना बनाती है। आज भी नवयुवकों को पढ़ाई के बाद फौज में कम से कम3-4 साल काम करना पड़ता है, इजराइल की तरह....
वे चीन के प्रति नरम है, भारत को भी नरम दृष्टि से देखते हैं,,
वहां जाकर मुझे प्रेस टीवी देखते वक्त पहली बार ( मेरा अज्ञान है यह , मानती हूँ) पता चला की एक ऐसा समुदाय हैं जो अपने को मुस्लिम तो मानता है, लेकिन डायरे्क्ट खुदा का बन्दा। और शिया सुन्नी दोनों के खिलाफ, कुछ कुछ इसाई धर्म के "बन्दोकोस्त समुदाय" की तरह जो अन्य ईसाइयों की तरह ना क्रिसमस मनाते हैं, ना गुड फ्राइडे।
मुझे ईरान की यह रणनीति बेहद चौंकाने वाली लगी कि वे इराक की मदद को तैयार हो गये, फिर समझ में आ गया कि वे अमेरिका के प्रभूत्व को चुनौती देने को और अपने धर्म स्थान की रक्षा के लिये तैयार हुए होंगे...
राजनीति बेहद चक्करदार बन्द गलियाँ है, भूल भुलैया भी नहीं....

शाम को फिर से कविता पाठ था, इसमें मुझे भी बोलना था, यह एक सुन्दर सांस्कृतिक केन्द्र में था। इसके बाद मेरी मित्र का भाई मुझे लेने आया तो अनुवादक महोदय बड़े नाखुश हुए, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वे एक साठ से उपर की महिला को बन्दिशों में क्यों रखना चाह रहे थे।
ईरानी लोग बहुत मेहमानबाज होते हैं, घर के भीतर महिलाएँ स्वतन्त्र होती है, आराम से पाश्चात्य परिधान पहन लेती हैं, लेकिन जब फोटों खींचने की बात हुई तो मित्र की माँ जो मेरी ही उम्र की थी, चादर ओढ़ने चली गई। वे वैज्ञानिक थी, और भारत में भी रही हैं। बेटी यूरोप में रह रही, बेटा भी पढ़ रहाहै, लेकिन ईरान के कायदे के अनुसार उसे सेना में नौकरी करने के नियमका पालन करना जरूरी था। ना करने के लिए काफी बड़ा फाइन भरना पड़ता है, मुझे वह बच्चा बड़ा भोला सा लगा, समझ ही नहीं आया कि वह सेना में क्या कर सकता है।

उन्होंने मेरे साथ काफी कुछ भेंट  भी बांध दी।

ईरान के ही प्रेस टी वी के माध्यम से मुझ तक बी जे पी जीत की खबर मिली।
अन्य टी वी चैनल उस पंच सितारा होटल में भी निषेध थे. एक संवाद जरूर दिखाई दिया जिसमें यू के स्थित पाकिस्तानी रिपोर्टर मोदी सरकार खतरे गिना रहा था और यूएस स्थित भारतीय रिपोर्टर लगभग बचाव सा कर रहा था.
मुझे डर था कि स्थानीय इस्लामिक सरकार भारतीय सरकार के नये चेहरे से कुछ खफा तो होगी, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब अधिकतर लोगो ने मुझे नई सरकार के लिये बधाई दी, भाषा के कारण सम्वाद तो हो नहीं पाया।
लेकिन बाद में एक कवि पत्रकार से दुभाषिये की मदद से सम्वाद हुआ तो आश्चर्य जनक बाते सामने आई, उनका कहना था कि भारत का झुकाव अमेरिका की तरह बढ़ता जा रहा था, वह जिस तरह से पेलिस्तान को नकार के इजराइल की तरफ जा रहा था वह भी दुखदायी था। हमे भारत के हिन्दुत्व से कोई खतरा नहीं, क्यों कि इतिहास का कोई भी दौर नहीं बताता कि भारत ने दूसरो की जमीन हड़पने के युद्ध किये हों...
हम तो यही आशा करते हैं कि भारत अपनी विदेश नीति को अपनी समझदारी और अपने पुराने रिस्तों से देखे, जैसे कि इन्दिरा गान्धी के वक्त तक होता रहा...
मैंने एक भी व्यक्ति नहीं देखा जिसने जवाहर या इन्दिरा का उल्लेख नहीं किया, वे सब उन्हे दुनिया की सक्षम और खूबसूरत महिला नेता के रूप में याद कर रहे थे,,,
इरान और भारत का नस्ली रिश्ता ही होगा कि वे सब इसकी ओर आशा की नजर से देख रहे हैं..

अगला दिन आखिरी दिन था, जब अन्तिम समारोह होना था। मेरे अनुवादक ने कहा कि सुबह हम मीनार देखने जायेंगे, फिर होटल आकर खाना खाकर शाम को समापन कार्यक्रम में जायेंगे।
मैंने सामान्य सी वेशभूषा निकाल ली।

 हम लोग मीनार देखने गए। कहाँ जाता है कि यह विश्व  की सबसे ऊंची मीनार है। यह स्थान पर्यटन के लिए बेहतरीन थी। हर तरह की जानकारी, फोटों खींचने की सुविधा, तरह तरह के शीशे, शायरों की मूर्तियां, और ना जाने क्या क्या..मेरे साथ कोई ना कोई हमेशा बना रहता था। एक जगह मैं कुछ देख रही थी तो एक महिला मेरे पास आकर अच्छी अंग्रेजी में बोलने लगी, आप इणदिया से हैं क्या?

मैं यहां सर्जन हूँ,लेकिन यहाँ जो पर्दा सिस्टम है उससे बहुत परेशान हूँ, यदि मैं विरोध करूं तो मेरे पति ही पहला आदमी होगा जो मेरा मर्डर कर देगा.... आप हमारी आवाज बाहर ले जायें।

मैं यह सुन कर थर्रा कर रह गई,,,,
मैने देखा था कि ईरानी लड़कियों में गजब का नूर होता है, उन से  ज्यादा फैशन को कोई नहीं समझ पाता होगा, अपने काले लिबास में भी वे इतने नये प्रयोग कर लेती हैं कि वह उनके दिपदिपाते रंग से और दमकने लगता है, और सारे रंगों को नाखूनों में समा देती हैं।
उनके बन्द जूते फैशन की नई इबारत पढ़ते हैं, एक लट को भी बाहर झांकने का मौका मिला तो वह सतरंगी हो उठती है. अपने को इतना दुबला रखती है कि चेहरा भरा भरा लेकिन स्याह तम्बू से तनी देह सटाक सी लगती है
ना जाने कमबख्ते खुदा का सारा नूर ही चुरा लाई
और आप उन्हे हर जगह देख सकते हैं, वैज्ञानिक के रूप में, आर्मी में, कालेजों में, दफ्तरों मे, केनवास पर, कागज पर, एयर होस्टेज के रूप में , गाइड के रूप में, और तो और रात्री होटलों में बैरों के रूप में भी
सर से हिजाब उतरता नहीं, लेकिन खुदा का नूर चढ़ता रहता

ओह तो यह कारण है कि मुझे इस तरह से रखा जा रहा है कि मैं किसी से बात ना करूं, वहाँ महिलाओं में जो घुटन है, वह महिलाओं से ही बाँटी जा सकती है।

मीनार मे जा कर पता  चला कि हम होटल ना जाकर कल्चर सेन्टर जा रहे हैं, मुझे गुस्सा आया, लेकिन क्या कर सकती थी, मैंने मीनार में दूकान से एक अच्छी ईरानी ड्रेस खरीदी, और एक ऊंट की खाल का थैला भी।

जब हम कल्चर सेन्टर पहुंचे तो मैंने देखा कि ईरानी कला आज भी बेहद जबरदस्त है, लोग बेहतरीन कार्य कर रहे हैं।

जब हम कार्यक्रम की जगह पहुँचे तो मैंने कुछ अध्यापिकाओं को देखा, जिनसे हम लोग पिचले दिन मिल चुके थे, मैंने एक से कहा कि मुझे बाथरूम जाना है,

वहा जाकर मैंने उन्हें बताया कि मै कपड़े बदलना चाहती हूँ, क्यों कि यह ड्रेस , जो मैं पहने हूँ कार्यक्रम के अनुरूप नहीं लग रही है। उन्होंने मदद की। जब मैं लौटी तो मैंने देखा कि अनुवादक कुछ नाखुश है। कार्यक्रम भव्य था, ईरान के सांस्कृतिक मन्त्री भी उपस्थित थे। बार बार कैमरा हम लोगो पर आ रहा था। कार्यक्रम के बाद मैं चुपचाप बाहर आ गई। तभी किसी टी वी वाले ने मुझे बाइट देने को कहा, लेकिन उससे पहले मेरा बाल ढ़ंक दिए गए।

इतनी देर में अनुवादक दौड़ता आया और बिगड़ने लगा कि आप बार बार कहाँ खौ जाती हैं,? मैं चुप रही,,,,,

जब मैं बस मैं बैठी तो वह मुझे से कहने लगा कि आपने उन अध्यापकों को कहा कि मैंने आपको ठीक कपड़े नहीं पहनने दिए, क्या मैं आपका असिस्टेन्ट हूँ, अब ेरा सब्र का बाँध टूट गया था,,,, मैंने लगभग िल्लाते हुए कहा कि ... यू आलरेडी मेड माई लाइफ हेल, नाऊ गो अवे....

बस में सन्नाटा छा गया,,

वापिस लौट कर मैं अपने कमरे में चली गई,,,, तभी दफ्तर से फोन आया कि मैडम , हम आप से माफी मांगते हैं, आप नाराज ना हों... आपका अनुवादक बदल दिया जायेगा,,,,, मैंने पूरी घटना बताते हुए कहा कि मेरा इरादा किसी को परेशान करना नहीं था, लेकिन मुझे समस्या हो रही है, क्या कि मुझे पता ही नहीं कि आपका अगला कदम क्या है....

खैर दूसरे दिन हमें शीराज  परसापोरिस देखने  जाना था, अब साथी कवियों से बातचीत आरम्भ हुई, क्यों कि मैंने आयोजकों से कहा कि मैं कवि हूँ, ये क्या संस्कृति है कि दूसरे कवि पुरु     होने के कारण एक झुण्ड में रहते हैं, मैं अकेले छोड़ दी जाती हूँ.... लोगों को बात समझ आई, और दो कवियों से सम्वाद होना शुरु हुआ

मुझेपता चला कि अन्य कवियों में दो अपने को साम्यवादी कहते हैं,  मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे इराक के कवि अलि और अरबेनिया के कवि अजरुद्दीन के बारे में पता चला कि वे सक्रिय राजनीति में है, जहाँ अलि अल शाह मेम्बर आफ पार्लिया मेन्ट हैं वही अजरुद्दीन मेयोबि मन्त्री भी रह चुके हैं।

अलि अल शाह ने स्विटजर लैण्ड में पढ़ाई की है, इसलिये वे अंग्रेजी से वाकिफ है, लेकिन अजरुद्दीन मेयोबि मात्र अरबी और थोड़ी बहुत फ्रैंच बोल पाते थे। लेकिन सम्वाद के लिये खुलापन अजरुद्दीन मेयोबि में था, वे भारतीय राजनैतिक परिवर्तन से वाकिफ थे। अलि इराक के हैं, और उनकी सोच का दायरा बड़ा बन्द सा दिखाई पड़ा,,,,,

मैंने अजरुद्दीन मेयोबि से पूछा कि आप लेखन, पत्रकारिता और राजनीति को एक साथ कैसे सम्भाल पाते हैं, क्यों कि तीनों चीजें तीन अलग दिशाओं में जाती हैं तो उन्होंने बड़ा सटीक जवाब दिया-आम जनता विचारधारा को नहीं देखती, उसके लिये सड़क, मकान, रोजगार, जैसे मसले अहम होते हैं, इसलिये उसे अलग कर देखना बेफकूफी है.... हाँ लेखक के रूप में मुझे ध्यान रखना है कि मेरी वैचारिक दृष्टि प्रभावित तो नहीं हो रही है। पत्रकार के रूप में मेरे सामने केवल यथार्थ रहता है....



आज भी वहीं, प्लान क्या है, किसी को मालूम नहीं, पहल कहा गया कि सामान यहीं छोड़ना है, फिर कहा गया कि साथ ले लो, लगता था कि कहीं से देश  रहा है, और बदला जा रहा है। खेर जब हम हवाई अड्डे पहुँचे तो देखा कि यहाँ ज्यादा सुरक्षा है, हवाई जहाज काफी पुराना सा लग रहा था, लगता था कि डोलता जा रहा हो, दो, तीन घण्टे की फ्लाइट रही होगी, यहाँ आते ही मुझे एक लड़की अनुवादक मिल गई, सच मुझे बहुत खुशी हुई, क्यों कि अब मैं आराम से उससे बतिया सकती थी।
होटल बहुत ठीक ठाक ही था। हम लोगों से कहा गया कि हम लोग जलदी से तैयार होकर बाहर निकले, खाना खाने जाना है।

शीराज ईरान का सांस्कतिक प्रान्त है, जो शायरी, संस्कृति और फूल और सुरा के लिए प्रसिद्ध है। इसका इतिहास चार हजार वर्ष पहले तक जाता है। यहाँ विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक पनपी थी। चिंगेज खान के आक्रमण क बाद यह इस्लाम का केन्द्र भी बना।  हम लोग एक होटल मे गए, जहाँ पर तरह तरह के व्यंजन थे, और रोटी और पानी मेज पर रखे थे। इरान में आपकों मुफ्त में रोटी मिल सकती है। खाने के इतने व्यंजन कि गिने ना जा सके। तन्दूर कमरे का आकार का था, जिसमें  बड़ा सा उल्टा तवा रखा था, ए आदमी उस पर आटे का बड़ा सा लौंदा फैंकता, जो पूरे तवे पर फैल जाता, दूसरा उसे पलट कर बाहर निकालता, बाहर निकलने पर उसके टुकड़े कि॓ जाते़ हम लोगों को इमाम जादे हजाह  ले जाया गया, फिर लोकल बाजार भी।

शाम को हम लोग ईरान के खास ुनिया के सबसे पुराने  वकील बाजार में शापिंग करने गये, यह सबसे ज्यादा मजेदार अनुभव था, बाजार क्या, मानों सिम सिम दुनिया था, क्या चमक, क्या खुबसूरती, मन खुश हो गया।

रात को एक ऐसे होटल गये जहाँ पर भारत में राजस्थानी धाणी होटलों की तरह छटा थी, जगह जगह मचाइयाँ बिछी थी, लोग परिवार के साथ थे, मधुर गाने बज रहे थे, महिलाएँ झूम रहीं थीं. मैंने देखा कि बैरा भी लड़कियाँ थी, जिन्होंन सुर्ख लिप्सटिक लगा रखी थी,  सिर पर स्कार्फ के अलावा और कुछ इस्लामियत के बन्धन में नहीं था, लेकिन मालूम पड़ा कि वहाँ जगह नहीं बची है, तो हम लोग लौट कर दूसरे होटल की ओर गये।

दूसरे दिन हम परसापोलिस की ओर गए, एक विशाल संस्कृति के महान अवशेष,,, विशालकाय सीढ़ियाँ, दीवारों पर चित्र, ऊंचे खम्भे, और उन पर कामधेनू सी सुन्दर गायों की मुर्तियां.... इतना बड़ा शासन, जो गणित, आर्कीटेक्ट, मूर्तिकला में निपुण था, जहाँ दुनिया भर से लोग आया जाया करते थे, वह कि मतान्धता के चलते खत्म हो गया। मन अवसाद से भर गया।

समस्या यह भी है कि धार्मिक कट्टरता के चलते इस स्थान पर शोध भी अधिक नहीं हो पा रहा है।

मैं वैदिक संस्कृति की भगिनि इस संस्कृति के ह्वास से दुखी थी, शाम को हम फिर शीराज चल देते हैं।

तीसरा दिन माल में बीतता है, हमारे साथ आये मिस्र के कवि सबसे ज्यादा शापिंग कर रहे थे, मैं लड़कियों को देख रही थी, किस तरह से अपने फैसन को आबाद किये हुए है, कितनी खूबसूरत हैं,,,

आखिर में हम हाफिज की मजार पर जाते हैं,

इस यात्रा का सबसे बड़ा पड़ाव, कब्र पर हाथ रख मंगत मांगनी है,

क्या मांगू, दुनिया के लिए चैन शान्ति?

शायरी का उल्लास ?

या फिर संस्कृतियों का पुनरागमन?

शीराज से लौटते ही हमे अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अद्डे पर पहुंचना है,,,,, संभवतया, हमारे आयोजकों को भी चैन की सांस मिली होगी,,,,, मुझे तो कुछ अच्छा लग ही रहा था,,,,

हवाई जहाज में बैठते ही सिर से लबादा उतारा,,,, लगा कि मैं वापिस अपने व्यक्तित्व में लौट आई हूं

ईरान, तुम मुझे बहुत पसन्द आये,,,, लेकिन यदि तुम जनाना धड़कनों को भी समझते तो क्या बेहतर होता !!!




Monday, March 6, 2017

स्पेन के अकरुना में गेलेसिया भाषा और संस्कृति से रूबरू होते हुए



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अपनी भाषा और कौम से अप्रतिम स्नेह का भाव मैंने दो भाषाई समुदाय में खास देखा एक वैल्श , जो ठसक के साथ इंग्लैण्ड के सामने खड़े होकर , उसका भौगोलिक भाग होते हुए भी अपनी भाषा को अपनी पहचान बना ले़। वैल्श के बारे में वैल्श से सम्बन्धित संस्मरणों मे लिख चुकी हूँ। लेकिन इस बार जब मुझे स्पेन के गैलेसियन प्रान्त में कविता पाठ का आमन्त्रण मिला, तब मैंने गैलिेसियन वैचारिकता को स्पेनिश संस्कृति से भिन्न नहीं समझा था। हालांकि आमन्त्रण कर्ता से मेरी संक्षिप्त मुलाकात चीन में हो चुकी थी, लेकिन अधिक संवाद नहीं हो पाया था। लेकिन जब मुझे कल्चर वीसा की समस्या हुई तो जिस तरह से योलण्डा नें वीसा अफसरों से एक तरह की लड़ाई लड़ी, वह उस नाजुक सी लड़की के दूसरे पक्ष को दर्शा रही थी़। जब योलण्डा ने स्पेनिश वीसा अफसरों को गैलेसियन भाषा के साहित्य का इतिहास अपने लम्बे लम्बे खतों में पढ़ा दिया तो मुझे समझ में आगया कि गैलेसियन भाषा और साहित्य अपने देश में अल्पसंख्यक स्थिति का सामना कर रहा है़ , लेकिन वहाँ के कलाकार और साहित्यकार अपनी जंग बेहतर तरीके से लड़ रहे थे।   


 


 अ करोना, गैलेसियन प्रान्त के नगर के हवाई अड्डे से निकलते ही योलाण्डा आतुर सी दिखाई दी, गले मिलते हुई बोली, “क्या हुआ तुमने बाहर निकलने में इतनी देर क्यों कर दी, मैं तो घबरा गई थी कि कोई नई समस्या तो नहीं?”
 मैंने हंस कर कहा,-“ अच्छा ही हुआ कि सारी समास्याएँ आने से पहले ही दूर हो गई, अब अच्छा वक्त बीतेगा। “कार में बैठते ही योलाण्डा ने सबसे पहले मुझसे कार के साफ ना होने के लिये माफी मांगी, कार पर पक्षियों की बीठ आदि पड़ी थी, धूल भी जमी थी, मैंने हंस कर कहा, नहीं कार के लिए माफी मंगने की जरूरत नहीं, ये तो खासतौर से कवि की कार लग रही है, पंछियों दरख्तों से प्रेम करती हुई सी।

योलाण्डा शहर के बारे में लगातार बताती रही कि यह शहर कभी गेलेसियन साम्राज्य का महत्वपूर्ण हिस्सा था, जो अपने महत्वपूर्ण बन्दरगाह के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था। इसे The harbour of the brave men". भी कहा जाता था। समुद्री बन्दरगाह होने के कारण यह अति प्राचीन काल से महत्वपूर्ण स्थान रहा है, और युद्ध का केन्द्र भी रहा है। सामुद्रिक प्रभाव ने इसे व्यापार के कारण भी मजबूति दी, लेकिन स्पेन के गृह युद्ध के बाद शहर की तस्वीर बदली और खूबसूरत इमारतों से अटा यह शहर बेढंगी गगन चुम्बी इमारतों से अट गया।
योलण्डा अपने शहर और भाषा से इतना जुड़ी है कि उसने कहा –“ रति, मैं सोचती हूँ कि किसी भी शहर की पहली तस्वीर खूबसूरत होनी चाहिये, इसलिये तु्म्हें  होटल ले जाने से पहले शहर के खूबसूरत हिस्सों को दिखाना चाहती हूँ, यदि तुम थकी ना हो तो। “

मैंने कहा- थकने की  क्या बात है, आराम से बैठ कर ही तो आई थी, चलों शहर देखते हैं।

हालांकि मेरे इस सफर में भी अड़चन आ गई थी, एक रात पहले लण्डन में अपनी बेटी के घर से मैंने जब वेब बुकिंग करनी चाही तो कहीं कुछ गड़बड़ आ गई, और जब मैं हवाई अड्डे पर पहुँची तो मेरा नाम ही लिस्ट में नहीं था, वो तो इसी तरह की समस्या पहले भी आ चुकी थी, इसलिये वहाँ डैस्क पर खड़े नौजवान ने  मास्टर कम्प्यूटर पर चैक करने का सोचा, और गलती पता पड़ी़ । तब तक काफी वक्त जाया हो गया था, तो मुझे लगभग भाग कर अनेक अड़चनों से पार करते हुए जाना पड़ा। इन छोटी फ्लाइटों में सारा सामान हाथ में होता है, तप 10 किलों का बैग हाथ में, एक कम्प्यूटर बैग पीठ पर....
और जहाज में भी सबसे आखिरी सीट मिली, इसलिये बाहर निकलने भी देर हो गई।

लेकिन मैं सब कुछ भुला कर बस इस कवित्वमय वातावरण को अनुभूत करना चाह रही थी़।

वह सब से पहले एक समुद्र तट से काफी उँचे स्थान पर ले गई, जहाँ से शहर और समुद्री इलाका किसी परीकथा सा लग रहा था। हवा की तेजी सूरज के ताप को टिकने नहीं दे रही थी।
सच कोई दृश्य इतना भव्य हो सकता है क्या?  मैं सोच नहीं पा रही थी। शाम के आठ बजे के बाद का वक्त था, इसलिये कुछ कुछ स्थानों पर श्यामल शाम के कदम पड़ चुके थे, लेकिन धूप ने अभी तक साहस नहीं चोड़ा था, समन्दर नील, पीत ओर हरित वर्ण में चितकबरा सा लग रहा था। नई बहुमंजिली इमारते पुराने शहर से बेमेल तो लग रही थी, नई दस्तक की सूचना भी दे रही थी।
इसके उपरान्त योलाण्डा ए कोरुना शहर की पारम्परिक मकान निर्मण के बारे में बताते हुए विस्तार में बताने लगी कि सफेद रंग के काँच के जाले किस तरह मकानों के तापमान को ठीक रखने में मददगार होते रहे हैं, लेकिन कुछ युद्धों और गृह युद्ध के उपरान्त इस प्रान्त की आर्थिक अवस्था इतनी खराब हो गई कि सस्ते बहुमंजिली मकानों का निर्माण होने लगा, जिससे शहर की भव्यता पर असर हुआ।
अ कोरुना शहर मुझे तो गुड़िया के शहर सा लग रहा था। मेरा होटल भी एक केन्द्र में था, जिससे बाजार और दृश्यनीय इमारते करीब ही थीं। गेलेसियन भाषा के प्रसार हेतु, म्यूनिसिपलिटी आमन्त्रि कवि के लिये पंचसितारा होटल में स्थान देती है, अतः होटल भव्य और आरामदायक था।
योलाण्डा ने मुझे बताया कि कल का दिन आश्चर्यों का दिन है, तुम्हे बेहद खूबसूरत जगह ले जाने का प्लान है, इसलिये कल सुबह नौ बजे तक तैयार रहना,
भव्य होटल के खूबसूरत कमरा मेरी नीन्द का इ्ंतजार ही कर रहा था,  और मैं बिना किसी पढ़ाई लिखाई के आराम से सो गई़़...

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सात जुलाई यानि कि अ कोरुना पहुँचने के दूसरे दिन हम करीब नौ बजे सेन्त्र्यागो के लिये रवाना हुए, योलाण्डा ठीक साड़े नौ बजे होटल की लाबी में पहुँच गई, मैं उसका इंतजार ही कर रही थी। तब तक सेन्त्र्यागो मेरे लिये एक अबूझ पहेली ही  थी। सोचा कि नेट खोल कर देखूँ, लेकिन फिर सोचा कि अबूझेपन का अपना मजा है, अनजाना इतिहास रहस्य मयी कथा की तरह पर्दा उठाता है। मुझे योलाण्डा की वक्तृत्व कला का  अनुमान भी हो चुका था, तो सोचा कि वो जितना समझा देगी उतना तो नेट पर लिखा भी नही होगा। लेकिन इस बार योलाण्डा ने कार चलाते हुए कहा,-“देखो, जहाँ मैं तुम्हे ले चल रही हूँ, बहुत पुरानी जगह है,निसन्दह तुम्हे पसन्द आयेगी, लेकिन मैं चाहती हँ कि तुम पहले देखो, फिर समझों।“

योलाण्डा फर्राटे से कार चलाती है, बता रही थी कि--मैंने  अपनी जिन्दगी का सबसे पहला बड़ा काम यही किया कि अट्ठारह की होने से पहले ही कार चलानी सीखी और पहला काम कार खरीदना था,वही मेरी जिन्दगी की पहली आजादी थी।
रास्ता बेहद खूबसूरत  हरा -भरा था, दोनों ओर पहाड़ियों से गुजरते रास्तों में दोनों ओर नन्हें- नन्हें पुल बने हुए थे। छोटी -छोटी यूरोपीय बस्तियाँ थी।
मैं यह कभी नहीं समझ पाई कि इन दूरस्थ जंगलों में बसी बस्तियों में लोग कैसे रहते होंगे, कैसे वे अपनी जरूरतें पूरी करते होंगे। केरल में तो सड़क से यात्रा करो तो आदम बस्ती खत्म होने का नाम ही लेती, यहाँ कान से कान सटाये शहर रहते हैं। ग्रैण्ड रोड पर बकरियाँ , कुत्ते बिल्लियों के साथ लोग बाग भी भाग भाग कर सड़कें पार करते रहते हैं।

तेज रफ्तार से चलते हुए भी हमे अपने गन्तव्य तक पहुँचने में डेढ घण्टा लग गया था।

कुछ पहाड़ी इलाके में बसा हुए शहर की पहली सुगन्ध बड़ी भीनी थी, एसा लगा कि मानों हम कोई पुरानी यूरोपीय तस्वीर देख रहे हों, बेहद पुराने वक्त की प्राचीरें, इमारते और मकान का खासा गेलेसियन अन्दाज। गेलेसियन जन फूलों से खासा प्यार करते हैं तो हर छज्जे से झाँकते लटकते फूल। योलाण्डा अच्छी खासी इंगलिश जानती हैं, अन्यथा मुझे इस तरह की यात्राओं में अधिकतर गूंगा बन कर ही रहना होता है।

सड़के संकरी थी, इसलिये गाड़ी पार्किंग की जगह मिलना मुश्किल था, लेकिन योलाण्डा ने बड़ी खू  बसूरती से दो गाड़ियों के बीच अपनी लम्बी गाड़ीपार्क कर ली। और बोली, जो भी सामान लेना हो, ले लो, अब हम शाम को ही वापिस लौटेंगे यहाँ। धूप चमक रही थी, स्वेटर आदी की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी, तो मैंने स्वेटर को वहीं छोड़ा और कैमरा और पर्स लेकर उतर गई। गलियाँ साफ सुथरी थी, लेकिन शहर की गन्ध बता रही थी कि यह सदियों का करिश्मा है।

योलाण्डा ने मुझ से पूछा,-- कैसा लगा रहा है?

मैंने कहा - ऐसा लग रहा है कि कोई पुराना एलबम देख रहे हों, इतनी ऊँची प्राचीरें, भव्य इमारतें लेकिन इतनी सटी, मानों कि एक दूसरे के कंधों का सहारा ले रही हों,
ये एक प्राचीन नगरी है, जिसके चिह्न  रोमन काल से भी पहले के हैं, कहा जाता है कि  44 AD  Saint James, जिनकी हत्या जेरुसलम मे  सिर काट कर कर दी गई थी, वे इससे पहले स्पेन , गेलेसिया से धर्मप्रचार के लिये गये थे़ लेकिन वर्जिन मेरी के किसी सन्देश का अनुकरण कर के जेरुसलम लौटे थे। गेलेसियन प्रान्त में धर्म प्रचार के उपरान्त जेरुसलम वापिस लौट रहे थे तो उनकी सिर काट कर हत्या कर दी गई, लेकिन उनके शिष्य उनकी मृत देह को जाफा ले गये जहाँ पर एक एक स्टोन शिप यानी को जहाज की आकृति में बने श्मसान ने उन्हें सन्त की देह को गेलसिया ले जाने का संकेत दिया। गेलेसिया में उन्हे स्थानीय रानी से शव दफनाने की प्रार्थना की तो उसने एक कठोर शर्त रख दी कि वे पहाड़ी से बैल ले कर आयें, कहा जाता है कि उस पहाड़ी में एक ड्रैगन रहता था जो आनेवाले को खा जाता था, लेकिन जब शिष्य वहाँ पहुँचे तो डैग्रन वाली पहाड़ी पर आग लग गई, और उन्हें कुछ नहीं हुआ। बैल भी जंगली थे, जो किसी को भी मार देते थे, लेकिन सन्त के शिष्यों को देखते ही शान्त हो गये। शिष्यों ने जहां सन्त की देह रखी थी, वही उनका केथेड्रेल Cathedral  बना दिया।Cathedral of Santiago de Compostela को अंग्रेजी में  Way of St. James कहते हैं।इस  तीर्थमार्ग नौवी सदी में मान्यता मिली और ग्यारहवीं सदी से लोकप्रिय होने लगा।   इतिहास के अनुसार यह तीर्थ मार्ग प्राचीन रोमन व्यापारिक मार्ग का अनुकरण करता है़ । रोमन इसे Finisterrae  कहते थे, जिसका अर्थ है  the end of the world or Land's End i। संभवतः इसलिये कि आकाश गंगा का आखिरी तारा इस ओर है़
आज इसे यूरोपीय कल्चर मार्ग कहा जाता है। वर्लड हेरिटेज के रूप में मान्यता मिल गई है़। इस मार्ग के बारे में भी दन्त कथा है कि एक मछुआरे को तारको से जानकारी मिली कि यहाँ सन्त जेम्स की भस्म दफनाई गई हैं, तो उसने अन्य लोगों को जानकारी दी। यह भी कहा जाता है कि  Moors के ८०० साल के  शासन काल में  ईसाई समुदाय की  जनता ने   मान्यता मांगी थी कि यदि उनका शासन खत्म हो जाये तो वे अपनी लगान का एक हिस्सा सन्त जेम्स के केथेड्रिल को देंगे। केथेलिक विचारधारा के लोगों को मोरक्का से आये मुस्लिम धर्मानुयायी का शासन कठोर लग रहा था। कहा जाता है कि युद्ध के दौरान को घड़सवार हाथ में तलवार लेकर लड़ने आया था, जिसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था।
मूर शासन काल ने भी स्पेनिश राज्य के विकास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। क्यों कि यह अरब, चीन आदि से विज्ञान , ज्योतिष और अन्य कलाओं को लाया था।
सन्त्यागो रोम और जेरुसलम के अलावा सबसे महत्वपूर्ण ईसाई तीर्थस्थल है, जो अपने तीर्थ मार्ग के कारण प्रसिद्ध है। विभिन्न यूरोपीय देशों से लोग पैदल चल कर यहाँ पहुँचते हैं। तीर्थ यात्री के पास एक लाठी और प्रतीक रूप में सीपी रहती है। स्पेन के प्रमुख तीर्थ मार्ग में जगह जगह धर्मशालायें हैं, जो बहुत सस्ते में यानी कि पाँच दस यूरों मे रात को सोने के लिये एक बिस्तरे की सुविधा देती हैं।
मैं और योलाण्डा प्रमुख कैथेड्रेल केपिछले भाग में उतरे थे, अतः पूरा ध्यान गलियों और सटे सटे मकानों पर था। बिल्कुल जयपुर सी एक दूसरे को काटती गलियाँ लेकिन दोनो तरफ अधिकतर दुमंजिला मकानो की खिड़कियों से लगभग एक से लाल फूलों वाले गुलदस्ते, फूलवारियों से भरी संकरी बालकनियाँ, योलाण्डा मुझे एक घर नुमा होटल के भीतर ले जाती है, देखों, यही इस शहर के घरों का पारम्परिक स्वरूप है, यह होटल गेलेसियन घर की छवि रखता है, यहाँ लोग आकर पढ़ते लिखते हैं, कवि कलाकारों के लिए बेहतर जगह है। सच, होटल क्या एक दुमंजिला घर था, जिसके आंगण में बेतरतीब झाड़ियों के बीच कुछ मूर्तियाँ बनी हुई थीं। लेकिन जो भी कुछ बेरततीब था, वह मन को तरतीब करने के लिये जरूरी था।

सड़के उँची नीचीं थी, सड़के क्या गलियां ही कहो, ओर हर चौथे कदम पर किसी ना किसी भव्य इमारत का कोना या गुम्बद ध्यान खींच लेता था। रास्ते में इक्के दुक्के तीर्थ यात्री जो पीठ पर लादी थैले टांगे, हाथ में लाठी लिये चुपचाप चलते आ रहे थे। किसी चौराहे पर क्रास का निशान तो किसी में मानव निर्मित झरना, हम गलियों से गुजरते जा रहे थे, और हर गली के मुहाने पर या बीचों बीच कोई ना को भव्य इमारत या वास्तु का अप्रतिम टुकड़ा दिख ही रहा था। अन्ततः हम प्रमुख केथेड्रल के विशाल प्रांगण में पहुँचे, जहाँ पर असंख्य यात्री, तीर्थ यात्री आराम कर रहे थे। धूप दिपदिपा रही थी, फोटोग्राफी के लिये बड़ी अच्छी स्थिति थी। केथेड्रेल का मुख्य भाग प्लास्टिक की शीटों से ढंका था, शायद को मरम्मत का का चल रहा था। योलाण्डा दुखी थी, तुम इसे असली रूप में देखती तो समझती कि ये कुछ अलग ही तरह की जगह है़।
योलाण्डा का जन्म इसी पुण्य भूमि मे हुआ था, उसका परिवार कई पीढियों से यहाँ बसा था। उसकी माँ का जन्म भी यहीं के एक मकान में हुआ़ था। इसलिये योलाण्डा एक एक इमारत क्या एक एक गली का इतिहास जानती थी, वह लगातार मकानों और गलियों के बारे में बताती भी जा रही थी। लेकिन मेरे लिये इतना सब याद रखना सम्भव ही नहीं था। जब हम केथैड्रल के भीतर जाने को तैयार हुए तो पता चला कि भीतर प्रार्थना चल रही है जो दुपहर के दो बजे के बाद खत्म होगी़ । योलाण्डा और मैंने भोजन के बाद आने का विचार किया।  और हम शहर की ओर चल दिये, जहाँ अधिकतर घरों को होटलों के रूप में बदल दिया गया है।

Sir Walter Raleigh ने तीर्थयात्रियों का इन खूबसूरत पंक्तियों में वर्णन किया है।
Give me my scallop shell of quiet;
My staff of faith to walk upon;
My scrip of joy, immortal diet;
My bottle of salvation;
My gown of glory, hope’s true gauge
And then I’ll take my pilgrimage.


होटलों में बड़ी भीड़ थी, तो योलाण्डा ने कहा कि मैं तुम्हे सामने वाले बगीचे में ले चलती हूँ, यह यहाँ के लोगों की जीवन रेखा है, बचपन में मेरी माँ हम भाई बहनों को लेकर यहाँ  हमेशा आया करती थी़। यह विशाल बगीचा ना केवल लोगों का अभय स्थल है बल्कि अनेक विश्वविद्यालयी विद्यार्थियों  का आराम घर भी रहा है। जी हाँ सन्त्रयागो शैक्षणिक नगरी भी रहा है ।

यहाँ यूरोप के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय रहे हैं। योलाण्डा बता रही थी कि एक वक्त दक्षिण अमेरिका, मैक्सिकों आदि से छात्र यहां पढ़ने के लिये आया करते थे, योलाण्डा की माँ ने इसी विश्वविद्यालय से बाटनी में ग्रेजुएशन किया था। योलण्डा की भी स्कूली और काफी कुछ कालेज की शिक्षा इसी शहर में हुई, बाद में परिवार अ कोरुना चला गया तो उन्होंने आगे की पढ़ाई वहाँ से की।

यह बगीचा कई विश्वविदयालयों के बीचो बीच स्थित है, दरअसल यह एक पहाड़ी नुमा जमीन पर ही बना है , इसलिये नगर और विद्यालयों की इमारते बगीचे से देखी जा सकती हैं। इस बगीचे में घुसते ही दो अधेड़  स्त्रियों की मूर्तियाँ दिखाई दी। योलाण्डा ने सबसे पहले यही कथा कही। युद्ध की विभीषिका के बाद जब यह नगरी शोक में डूबी थी, काले और सलेटी रंगों के अलावा कोई रंग दिखाई ही नहीं देता था, उस वक्त दो वृद्ध महिलाएँ, जिनमें से एक अविवाहित थी, दूसरी विधवा, दिन के ठीक दो बजे, पूरी तरह से सजधज के विश्वविद्यालय से सटे उपवन में टहलने निकल आती थी, लोग उन्हें टू ओ क्लाक के नाम से पुकारते, युवक भद्दे मजाक भी करते, लेकिन वे मानों अपनी उपस्थिति से शोक के रंग को मिटा देना चाहती थी। उनकी मृत्यु के बाद उनकी मूर्तियाँ लगाई गई, क्यों कि उन्होने एक तरह से शोक और दुख को कम करने का काम किया था़।।

एन दो बजे, दुपहरी को तेज देती हुई
अपनी पलकों पर  आसमान भर
होंठों को सुर्ख सजा

यूँ तो झुर्रियाँ उनके चेहरों पर
तितली सी मण्डरती रहती है
मैंण्डक हथेलियों पर थरथराते रहते हैं
कमर पर झूकी बोगनविला
पावों में जाकर सो जाती है

फिर भी वे निकल आती हैं
ठीक दो बजे, सूरज से आँख मिलाती हूई
सलेटी काले रंगों में लालिमा भरती हुई
जीती हुई, जीने का इशारा करती हुई

वे दो बजे की देवियाँ
आज भी खड़ी हैं जवानी के उपवन में


हम बगीचे में आगे बढ़े, खूबसूरत बड़ा सा बगीचा, योलाण्डा बताने लगी कि यह बगीचा इस शहर की धड़कन रहा है, वे जब छोटी थी तो माँ और भाई के साथ बगीचे में खेलने आती थी, बगीचा पहाड़ी के ऊपर था, जिसके एक और विश्विद्यालय भी था। योलाण्डा की माँ ने इतने स्तर के विश्वविद्यालय में पढ़ाई की थी, लेकिन उनकी शिक्षा घर परिवार के दायित्व में जाया हो गई। योलाण्डा की नानी की कपड़ों की दूकन थी, जिसे हम आज बुटिक कहते हैं, तो वे उसमें व्यस्त रहा करती थी, और नाना को अल्जाइमर हो गया था, जिनकी देखभाल योलाण्डा की माँ ही किया करती थीं।

बगीचे में गेलेसियन लेखकों, कवियों की ताम्बे की मूर्तियाँ बड़े रोचक तरीके से बैंचों आदि में बैठी हुई दिखाई दे रही थी़

हम लोग दुपहर के भोजन  के लिये एक रैंस्त्रों में आए, जब भी मैं देश से बाहर जाती हूँ मैं भोजन को पूरी तरह से होस्ट पर छोड़ देती हूँ, कारण यह है कि धिकतर होस्ट अपने इलाके के बढ़िया भोजन के बारे में जानते हैं, और मैंने देखा कि बढ़िया भोजन सिर्फ बढ़िया होता है यदि अपनी जिह्वा को स्वाद  महसूस करने को छोड़ दिया जाये तो। एक तरह से में भोजन प्रेमी हूँ। योलण्डा बड़ी खुश थी, क्यों कि वे भी भोजन प्रेमी है, और मेरे खुले स्वाभाव के कारण अपनी तरफ से बढ़िया भोजन करने कराने का आनन्द उठ सकती थी। बातों बातों में उसने एक भरतीय कन्नड़ कवयित्री के बारे में बताया जिसे वे किसी वर्कशाप में मिली थी, कि वे महिला रोजाना शाम को अपने बैग से कागज में लिपटा बासा खाना निकाल कर रैंस्त्रा के बैरे को गरम करने को देती थी, शायद वे महिला खाना भारत से बना कर ले गई थी।

खाने के बाद हम शहर की गलियों से गुजरने लगे, योलण्डा बेहद विचित्र बातें बताती रहीं। जैसे कि उसने एक ऐसी गली दिखाई जो बस इतनी चौड़ी थी कि एक आदमी दोनों हाथ फैला कर दोनो तरह की दीवारें छू लें, योलाण्डा ने मुझे उसमें खड़े होकर फोटों खिंचवाने को कहा तो अचानक मुझे याद आ गया,---“ प्रेम गली अति संकरी , जा मैं दो ना समाये”   ये तो जीता जागता उदाहरण था। मैं अपने आप ही खिलखिला उठी।
दूकाने लगभग उसी तरह से दोनों ओर बनी थी,जैसी कि जयपुर में छोटी चोपड़, बड़ी चोपड़ में दिखाई देती हैं। दूकानों के सामने लम्बी पोल, यानी की छज्जे जिनके ऊपर कभी घर हुआ करते थे। चलते चलते एक जगह योलण्डा रुक गई और  कहने लगी कि ऊपर देखो , मैंने देखा कि एक चौकोर लकड़ी का टुकड़ा छत पर था, योलाण्डा ने बताया कि ये दरअसल गुप्त खिड़की है, जो अधिकतर ऊपर बने मकानों के फर्थ पर बनी होती थी, जिसमें में से घर की स्त्रियाँ झांक कर नीचे देखती और फिर गपशप के लिये विषय खोजा करती थीं। दरअसल दूसरों की जिन्दगी में झांकना आदमी के लिये हमेशा से मनोरंजन  का विषय रहा है।

थोड़ी देर बाद हम फिर प्रमुख चर्च की तरफ गये, जिसमें सन्त की मूर्ति थी. जैसा कि हमेशा होता हैं,  गिरिजाघर बेहद भव्य और सुन्दर था, इनती भीड़ भाड़ वाली जगह में भी भीतर बेहद शान्ति थी.भव्य दीवारे, भव्य मूर्तियाँ , नक्काशी दार छत, हम चुपचाप उस पंक्ति में खड़े हो गये जो सन्त के पीछे जाती है, सन्त को पीछे से आलिंगन किया जाता है, और यह काम बेहद शान्ति से किया जाता है। लोग आलिंगन करते हुए मन्नत मांगते  हैं।
जब हम नीचे उतर तो चुप थे, लेकिन बाहर आते ही योलण्डा हंस पड़ी, कहने लगी कि ऐसा लग रहा था कि तुम जन्मजात ईसाई हो, मैंने हंसते हुए कहा कि हर अनुभव को अन्तर्लीन करना यात्रा का उद्देश्य होता है, और सान्त्र्यागो आकर बिना सन्त से मिले जाना ठीक नहीं होता ना।

धार्मिक नगरी करीब करीब एक सी होती है, तीर्थयात्री, सामान बेचने वाले और भिखारी, हाँ यहाँ पर भी कुछ भिखारी थे, लेकिन वे कहा जाता है कि रोमानिया से आये हुए थे. लेकिन हमारे देश की तुलना में बहुत कम थे


बेहद यादगार दिन गुजरा, एक खूबसूरत कवि के साथ, एक खूबसूरत प्राचीन नगरी की यात्रा , लौटते वक्त हम दोनों चुप थे, मुझे आश्चर्य हो रहा था कि योलण्डा किस तरह गाड़ी चला रही थी, क्यों कि मैं झूमने लगी थी। योलण्डा ने मुझे बिल्कुल रोका टोका नहीं। लौटते वक्त वह मुझे रेलवे स्टेशन लेकरआई, क्यों कि मुझे नौ तारीख को अलारिज जाना था,जहाँ मेरी दूसरा कविता पाठ था।

रास्ते में लौटते वक्त योलाण्डा ने मुझे रेलवे स्टेशन जाना था, क्योंकि मुझे अकरुना के कविता पाठ के दूसरे दिन आरेंस नगर में पाठ के लिए जाना था। योलाण्डा को उसी दिन अन्य नगर में जाना था, इसलिए मुझे अपने जाने का इंतजाम स्वयं करना था। समस्या केवल भाषा की थी, अन्यथा उन्होंने मेरे लिए टैक्सी और टिकिट आदि का इंतजाम कर दिया था, योलाण्डा मुझे रेलवे स्टेशन लेजाकर समझाने लगी  किस तरह से मैं किस नम्बर की गाड़ी में बैठू, और कहाँपर उतरू, फिर स्टेशन की काफी शाप में आयोजक का इंतजार करूँ।

अभी सांझ नही हुई थी, मैं होटल पहुँच गई, शाम को गेलेसिया के सांस्कृतिक केन्द्र् , जहाँ मेरा कविता पाठ भी होना था, वहीं आज एक दक्षिण भारतीय युवक की नृत्य प्रस्तुति थी। योलाण्डा ने कहा कि मैं आराम कर के फ्रेश हो जाऊं, वह मुझे लेने आएगी।

शाम को जब हम सांस्कृतिक केन्द्र पहुँच गए,योलाण्डा ने बताया कि यूरोप के अभिजात्य वर्ग में ओपरा का चलन होता है। अभीजात्य वर्ग अधिकतर डाउन टाउन से दूर रहते हैं, लेकिन गेलेसियन सरकार ने सांस्कतिक भवन डाउन टाउन में बनाया, जिससे निम्न और मध्यम वर्ग भी सांस्कृतिक चेतना से लाभान्वित हों। ये विशालकाय भवन है, जिसमें हाबी क्लासों से लेकर काफी हाउस, आर्ट गैलरी थियेटर आदि का इंतजाम होता है। यह भवन पूरी तरह से आधुनिक तकनिक से लैस है।  इतना सुन्दर सांस्कृतिक केन्द्र टाउन हाल में होने पर अभिजात्य वर्ग भी आपेरा के आनन्द के लिए यहाँ आने लगा, इस तरह सांस्कृतिक समन्वय क साथ सामाजिक समन्वय भी संभव हो पाया। यही केन्द्र हर तीसे महिने एक विदेशी और एक देशी कवि की काव्य गोष्ठी आयोजित करता है, जिसकी इन्चार्ज योलाण्डा थी, क्यों कि वे स्वयं अन्तर्राष्ट्रीय कवि के ख्याति अर्जित कर चुकी हैं, और अनेकों से परिचित हैं।


शाम को चैन्नई के कलाकार का नृत्य के लिए दर्शकों की संख्या बहुत अच्छी नहीं थी, शायद उस दिन धूप ज्यादा खिली थी, फिर भी जितने लोग थे, सभी ने आनन्द लिया। रात के खाने में हम सब साथ थे, नर्तक शाकाहारी भोजन ही चाहते थे, और यूोप में शाकाहारी भोजन महंगा होता है, योलाण्डा खुश थी कि हर तरह का भौजन करने को तैयार रहती हूँ, यही नहीं मैं, भोजन का चुनाव भी होस्ट पर छोड़ देती हूँ।

शाम को चैन्नई के कलाकार का नृत्य के लिए दर्शकों की संख्या बहुत अच्छी नहीं थी, शायद उस दिन धूप ज्यादा खिली थी, फिर भी जितने लोग थे, सभी ने आनन्द लिया। रात के खाने में हम सब साथ थे, नर्तक शाकाहारी भोजन ही चाहते थे, और यूोप में शाकाहारी भोजन महंगा होता है, योलाण्डा खुश थी कि हर तरह का भोजन करने को तैयार रहती हूँ, यही नहीं मैं, भोजन का चुनाव भी होस्ट पर छोड़ देती हूँ।


दूसरे दिन कविता पाठ शाम को था, इसलिए मैं सुबह सवेरे घूमने निकल गई, लेकिन दुपहर से पहले कमरे में वापिस आकर पाठ की तैयारी करने लगी।
 मुझ से योलाण्डा नें अनेक कविताये मंगवाई गई थी, मैंने वे कविताए छाँट कर दी, जिनके अनुवाद अग्रेजी और स्पेनिश दोनो भाषाओं में था। क्यों कि गेलेसियन भाषा पुर्तगाली भाषा से तो बहुत मिलती है, लेकिन स्पेनिश से भी संवाद रख लेती है। कविता चुनाव का काम योलाण्डा पर छोड़ दिया जिन्हें अनुवाद करना था। यूरोपीय देशों में हर प्रमुख कवि अच्छा अनुवादक भी होता है, क्यों कि यहाँ अनुवाद को विशेष महत्व दिया जाता है, और कभी कभी कवि की आय का यही साधन ही होता है।
मुझे आश्चर्य हुआ योलण्डा के दो चुनावों पर, एक कविता थी, पूर्वज और हम, जिसे मैंने बीस साल पहले लिखा था, साधारण सी कविता, साधारण सी शैली, ना घुमाव फिराव, बस अपने में पूर्वज खोजने की कोशिश, साथ ही उन्होंने मेरी चदरिया और देहान्तर नामक कविता को भी चुना, जिसमें भारतीय दर्शन जरा अजीब से भाव मे आया है, मेरी चदरिया, कबीर की चदरिया के जवाब में अध्यात्म की जमीनी हकीकत का बयान था, और देहान्तर भी दर्शन से उतर से जिन्दगी के हिस्से हिस्से पर उतर कर आई थी।
मेरी कुछ कविताएं, जिन्हे मैं अच्छा मानती थी, उस चुनाव प्रक्रिया में नहीं आई,।
मैं इतना ही समझ सकी कि कविता की भावना किसी भी भाषा या क्षेत्र में कुछ ना कुछ समानता रखती है, वैचारिक प्रक्रिया कहीं कहीं जुड़ती है, और जब ये जुड़ाव होता है तभी सम्प्रेषणीयता स्थान लेती है।
कविता की वैश्विकता सम्प्रेषण की एकाग्रता है, कहे तो गलत नहीं होगा....
शाम से पहले मैं तैयार थी , शाम को योलाण्डा आई, वे बला की खूबसूरत लग रही थी, अन्य कवि हेलेना भी अपने पति के साथ उपस्थित थी, होटल में हमारी शाम की चाय थी। योलाण्डा ने हर काम बहुत तारतम्य से कर रखा था। वे बेहद मजबूत तैयारी करती हैं। हेलेन अंग्रेजी नहीं जानती थी, लेकिन उनकी किताब बेहद खूबसूरत थी, जो चादर की तरह बिछ सकती थी।

शाम को हम सांस्कृतिक केन्द्र पहुँचे,  स्टेज, हाल आदि बेहद ही अच्छी तरह से सजा रखा था। साउण्ड सिस्टम बेहतरिन था। हम लोग तीस चालीस श्रोताओं की कल्पना कर रहे थे, लेकिन करीब सत्तर लोग हाल में उपस्थित हुए तो योलाण्डा बेहद खुश हो गई । हेलेन की पाठकीयता अच्छी थी, इसलिए बहुत से लोग उनके व्यक्तिगत परिचय से भी आये होंगे। पाठ बहुत अच्छी तरह से चला, बिल्कुल रिकार्डिंग सा, जिसमें एक भी टेक नहीं लिया गया हो। मुझे पता चला कि पूरा पाठ केन्द्र के बाहर की दीवार पर जगहजगह दिखाया गया था। वैसे भी उस दिन केन्द्र में हम दोनों की तस्वीरे सभी पर्दों पर दिखाई जा रही थी, पोस्टर ही नहीं पानी की बोतलों तक में हमारी तस्वीरे थी।
मेरी कुछ कविताओं को अच्छा रिस्पांस मिला, उसमें एक थी, मेरी चदरिया, आश्चर्य यह कि यह कविता मैं कबीर की चदरिया पर सवाल उठाते लिखी थी, और मेरा सोचना था कि पृष्ठभूमि ना जानने के कारण यूरोप में समझने में दिक्कत होगी, लेकिन अधिकतर लोगों ने अपने अपने तरीके से इससे अपने को कनेक्ट किया।

वीडियों बनाने वाली कलाकार ने मुझे अपने चित्रकार पति का चित्र दिखाया जिसमें चार स्त्रियाँ एक चादर बुन रही हैं, कविता की रचना प्रक्रिया कुछ भी हो, लेकिन सम्प्रेषण प्रक्रिया भी महत्व रखती है।
कवियों को जो स्नेह यूरोप में दिया जाता है, वैसा कहीं भी नहीं दिया जाता है।

रात का भोजन में मैं हेलेन, योलान्डा और हेलन के पति थे, मुझे हेलेन के पत ने बताया कि उन्होंने भी एक कविता पूर्वजों पर लिखी थी, और मेरी कविता सुन कर वे अच्छी तरह से कनेक्टकर सके... सच है कि कवि  की संवेदना भाषा या स्थान की मुहताज नहीं होती है।



रात का भोजन में मैं हेलेन, योलान्डा और हेलन के पति थे, मुझे हेलेन के पत ने बताया कि उन्होंने भी एक कविता पूर्वजों पर लिखी थी, और मेरी कविता सुन कर वे अच्छी तरह से कनेक्टकर सके... सच है कि कवि  की संवेदना भाषा या स्थान की मुहताज नहीं होती है।

काव्यपाठ के अगले दिन ही मुझे अलारिज,  के लिए रवाना होना था,योलाण्डा को दो दिन के लिए बाहर जाना था,निश्चय यह हुआ कि मेरे लिए सुबह आठ बजे के आसपास टैक्सी आ जायेगी, और मैं नौ बजे की ट्रेन लेकर अलारिज पहुँच जाऊंगी, जहाँ पर लुइस मिलेंगे।

मैं पहले रोम आदि में रेल की यात्रा कर चुकी हूँ, इसलिये परेशान नहीं थी। यहाँ समस्या बस भाषा की थी, लेकिन मुझे बताया गया कि खास स्टेशनों के नाम अंग्रेजी में भी बताये जाते हैं।

यूरोप में रेल बहुत साफ और सुन्दर होती हैं, इस रेल में तीर्थयात्री भी दिखाई दे रहे थे, जो सान्त्रायगो से लौट रहे थे। नदी, पहाड़, झरने और विशाल चारागाह, खिड़की से यह सब दिखाई दे तो क्या चाहिये।
दो घण्टे में मैं औरेन्स के नर  अलारिज पहुँच गई थी, और योलाण्डा द्वारा बताये गये काफी हाउस में बैठ गई। योलाण्डा ने मुझे कहा था कि एक काफी का आर्डर देकर वाइ फाइ का पासवर्ड मांग लेना, जिससे लुइस को अपने आने कीसूचना दे सकूं।

थोड़ी देर में लुइस हाजिर थे, हंसमुख , बच्चे सी चपलता, उन्होंने मेरा बैग उठाया, और चलनेको इशारा किया। लुइस शायद एक शब्द भी अंग्रेजी का नहीं बोल पाते थे।हम लोग एक खास जगह तक कार में पहुंचे, फिर लुइस ने मेरा बैग पकड़ कर पीछे आने का इशारा किया। मैं इस नगर को देख कर दंग थी, यहाँ गाड़ी भीतर नहीं जा सकती थी, साइिल या पैदल ही भीतर जाया जा  सकता था, पूरा नगर पतली पतली गलियों से घिरा था, जो छोटे छोटे चौकों से जुड़ा था।नगर के बीचों बीच गरम पानी की नहर निकलती थी,जिसके किारे एक प्राचीनकालीन स्पा था, साथ ही नया स्पा भी था। लुइस कुछ ना कुछ बोलते जा रहे हैं, और मैं सिर हिलाती जा रही थी, लेकिन भाषा की जगह आँखों का इस्तेमाल ज्यादा कर रही थी। मैंने नल खोल कर हाथ पानी के नीचे रखा तो खौलते पानी से मेरा हाथ जलते जलते बचा।

इस तरह रास्ते की इमारते घर, आदी देखते चौकों के बाद चौक पार करते हम एक छोटे से घर में जा पहुँचे, जो होटल था,जिसमें मेरे लिए कोने का एक बेहद छोटा कमरा बुक किया गया था। कमरे में बस एक बैड और एक मेज थी, खिड़की गली में खुलती थी। साफ सुथरा बाथरूम था।
मेरा सामान होटल में रख कर लुइस मुझे खाना खिलाने ले आये, और मेरी खाने की आदत के बारे में पूछा, तो मैंने कहा कि जो चीज यहाँ सबसे ज्यादा पसन्द की जाती हो, वही खाना है।
वे एक होटल में गए, जहाँ हमने लोकर ब्रेड के साथ सब्जी खाई।
वापिस होटल में छोड़ कर लुइस चले गये, और कहा कि मैं शाम को चार बजे तक तैयार रहूँ। लुइस विन्सेन्ट के नाम पर संस्था चलाते हैं, जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होत हैं। Vicente Martínez Risco Agüero (October 1, 1884,- April 30, 1963, Ourense)ओरेन्स नगर के बौद्धिक महान हस्ती थे। उन्होंने Xeración Nós, नामक सााहित्यक संस्था की स्थापना की। गैलेसियन भाषा के साथ साथ ये स्पेनिश उपन्यास और आलोचना कला के भी पिता भी माने जाते हैं। आपने गैलेसियन भाषा के उद्धार के लिये बहुत परिश्रम किया। मुझे बताया गया कि विन्सेन्ट भारतीय संस्कृति से प्रभावित थे, और भारत आना भी चाहते थे, लेकिन वह वक्त अलग था़ , वे पहले रवीन्द्र नाथ टैगोर के प्रशंसक थे, लेकिन यूरोप के ही किसी प्रान्त में जब उनसे मिले तो प्रभाव कम हो गया, उन्हें लगा कि रवीन्द्र नाथ का समाजवाद किताबीय है, जबकि गांधी का समाज पक्षीय है, वे तभी से गांधी के अनुयायी बन गये, हालांकि उन्हें गांधी जी से मिलने का मौका कभी नहीं मिला,,,

आज भी उनके नाम पर चलने वाली संस्था भारतीय कलाकारों या साहित्यकारों को साल में एक दो बार जरूर आमन्त्रित करती हैंविन्सेन्ट के भारत प्रेम के प्रतीक के रूप में,,,,,,

मेरे लिए ऐसे महान जन के कार्यक्रम में भाग लेने से ज्यादा क्या महत्वपूर्ण होता।
मैने एक शावर लिया और कविताओं का जत्था निकाल लिया। शाम को वे अपनी पत्नी के साथ हाजिर थे। लुइस की पत्नी ज्यादा व्यवहारिक लगी।

हम लोग पुनः गलियों गलियों निकलते हुए शहर को पहचानने की कोशिश करने लगे।

अलारिज शहर नदी के किनारे बसा है, इसलिए जब रोमन साम्राज्य का विकास हो रहा था, तो यह गुपचुपा सा प्रान्त भी  चपेट में आया। नदी का प्रयोग सेना के यातायात के लिए उपयुक्त था। रोमन सेना के नदी के किनारे अस्तबल और चमड़े के कारखाने खुल गये। और गरम स्रोत सैनिकों के आरामगाह बन गये, लेकिन इस छोटे से प्रान्त का चेहरा मोहरा नहीं बदला, सिवाय इसके कि हर तरफ चर्च थे।

लुइस मुझे एक अस्तबल ले जाते हैं, जहाँ घोड़े रखे जाते थे, आज वह चमड़े का व्यापारिक केन्द्र है। नदी बेहद खूबसूरत, और उस पर बने अर्धचनद्राकार पुल तो बहुत ही सुन्दर, जिनकी परछाई जल पर इस तरह पड़ रही थी कि वे पूर्ण चन्द्राकार लग रहे थे।

लुइस की पत्नी अना अभिव्यक्ति में बेहतर थी, बिना बोले ही काफी कुछ समझादेती थी। रास्ते में हम एक बेकरी पर रुके, जहाँ मेरे चित्र वाला पोस्टर लगा हुआ था। हम लोगो ने आइसक्रीम खाई, फिर चल दिए, अब हम एक ऐसी जगह पहुँचे जो कभी अस्तबल हुआ करता था, लेकिन ज उस पर रेस्तोरेन्ट खुला है, अस्तबल की किसि भी निशानी को मिटाये बिना उसे बड़ी सुन्दरता से रैस्टोरेन्ट का रूप दे दिया गया था।

रास्ते में अना ने मुझे एक विशालकाय ननरी दिखाई, जो किसी जेल से कम नहीं थी। कहा जाता है कि जो पुरुष अपनी पत्नी से नाराज होते या पसन्द नहीं करते, वे पत्नी को यहाँ छोड़ कर चले जाते। ननरी के भीतर क्या होता, कोई नहीं जानता। क्यों कि एक बार भीतर जाने के बाद कोई उन्हें देख नहीं सकता था। यदि घर का कोई जन उपहार लेकर आये तो उसे एक खास तरह की खिड़की से सामान देना होता था, जो घूमती थी, जिससे भीतर बैठे जन की परछाई भी ना दिखे।

ननरी किस तरह का जेलखाना थी, इस पर रिसर्च होनी चाहिये, लेकिन धर्म के छत्ते पर कौन हाथ डाले।

अलारिज में बैलों का महत्व रहा है, यहाँ बुल फाइट प्रचलित रही है, यह स्पेन का प्रमुख केल रहा है, इसलिए हम जगह जगह बैलों की आकृति को देख सकते हैं।

पतली पतली गलियों से निकल कर जब हम Vicente Martínez Risco के भवन पहुँचे तो देखा कि लुइस , जो हमसे कुछ पहले पहुँच चुके थे, खून से लथपथ थे, और बाहर किसी डाक्टर के पास जा रहे थे, पता चला की अन्धरे में उनका सिर किसी कांच से टकरा गया और खून बहने लगा। अना उन्हे लेकर भागी।

मेरा मन भी उदास हो गया था , लेकिन मैंने अपना मन विन्सेन्ट के पुस्तकालय आदि को देखने में लगाया, कुछ देर बाद लोग आने शुरु हो गय॓। मैं लुइस के बारे में सोच ही रही थी, कि वे और अना ते दिखाई दिये। लुइस किसी बच्चे की तरह चपल थे।

काव्य पाठ अच्छी तरह से चला, लुइस दर्द भूल कर फिल्म बनाते रहे। कमरा तंग था, लेकिन लोगों में उत्साह था।

पाठ के बाद स्थानीय पुडिंग के और वाइन की पार्टी थी, देर रात को मुझे होटल में पहुँचा कर अना और लुइस घर चले गए। और बताया कि वे दुपहर में लेने, आयेंगे। योलाण्डा नबताया था कि में अलारज मं दो दिन रहूँगी, लेकिन लुइस को अ करुना में कोई काम था, इसलिये अगले दिन ही लौटना था।

दूसरे दिन मुझे करीब के होटल में नाश्ता करना था, जो वहाँ काखास नाश्ता कहलाता था, वह था, चाकलेट ड्रिक।

मैंने देखा कि वहाँ एक बेहद बूढ़े व्यक्ति बैठे हैं, मालूम पड़ा कि होटल वाला उन्हे रोजाना मुफ्त में चाकलेट ड्रिंक देता है, जिसे वे आराम से पीकर जाते हैं।



वापिस आने पर होटल वाले ने मुझे कमरा खाली करने को कहा, तो समझ नहीं आया कि क्या करूं, क्यों कि वापिस लौटने का विचार शाम का था, तो क्या किया जाये। लेकिन कुछ देर में अना आ गई, मैंने तब तक अपना सामान लगा लिया था, अब अपना बेग होटल में छोड़ कर हम दोनों फिर से नगर प्रदक्षिणा को चल दिये, वे ही पतली गलियां, वे गरम सोते, सर्च , हवेलियाँ चौक। अना को हर कदम में जान पहचानवाला मिल जाता। मुझे लगा कि कितना अच्छा होता है इस तरह के शहर में रहना,,,, सब अपने ही लगते हैं। यदि मैं इस शहर में एक महिना भी रह लूँ , तो आसानी  इसे अपना बना सकती हूँ...

हमारी वापसी यात्रा कार से थी. अकरुना में मुझे उस होटल में टिका दिया गया, जिसमें मेरा फिर से
रिजर्वेशन किया गया था। यह एक छोटा सा होटल था, जिसे एक परिवार चला रहा था। माँ खाना बनाती, बेटा मेनेजमेन्ट देखने के साथ सफाई आदि भी करता। यूरोप में ऐसे होटल अच्छा लाभ कमाते हैं।


अब मैं बिल्कुल अकेली थी, हालांकि में खास ट्यूरिस्ट सेन्टर में थी, इसलिये सब कुछ पैदल चलने की परिधी में था। मैंने बस यूं ही चलना शुरु कर दिया। सबसे पहले मैंने समन्दर तट के किनारे चलना शुरु किया, जहाँ विशाल बगीचा था, और बन्दरगाह था। जिसके अन्त में एक पराचीन किला था. जिसके बारे में कहा जाता है कि यह अ करुना की प्राचीनतक इमारत है। किले तक पहुंच कर पता चला कि भीतर जाने का वक्त पूरा हो गया, तो मैं आसपास घूमने लगी। घूमते घूमते मुझे कई छोटे छोटे संग्राहलय मिलें, जहाँ पर गैलेसियन साहित्यकारों का साहित्य था। मैं पढ़ तो कुछ नहीं सकती थी, लेकिन चित्र देख कर लौटती गई। मैंने देखा कि इ नगरों में चौकों का खास महत्व होता है, एक चौक दूसरे से कहीं ना कहीं जुड़ता है, बगीचे भी इन नगरों की पहचान हैं।

मैंने एक बेहद बूढ़ी महिला को फलों की छकड़ा गाड़ी लेकर जाते देखा, लौटते वक्त उस पर ब्रेड
 थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि यहाँ उम्र श्रम के महत्व को नहीं नकारती है।

अकरुना में रात कब होती है, पता ही नहीं चलता, क्यों कि चौक हमेशा आदाब रहते हैं, खाने के आउटलेट चमकते रहते हैं, लोग आते जाते रहते हैं। अच्छी बात यह है कि यहाँ गलियों के भीतर गाड़िया नहीं ले जाई जा सकति, हर जगह पैदल ही घूमा जाता है। इसलिए समस्या नहीं होती।
मेरी खासी परेशानी खाने को लेकर थी, क्योंकि किसी भी रेस्टोरेन्ट में अंग्रेजी नहीं बोली जाती, मैन्यू कार्ड भी गेलेसियन भाषा में होता है, अतः मैं ऐसे स्थान में गई, जहाँ सैन्डविच दिखाई दे रहा था।

रात को मैंने निश्चय किया कि एक और दिन है मेरे पास, तो मैं तारतम्य से घूमूंगी।
दूसरे दिन मैं सुबह सवेरे नहा धोकर बाहर निकल गई, नाश्ता होटल में था,
पास में एक झौला, एक डायरी और एक कलम, साथ में मेरा कैमरा।
बूढ़ा किला मेरी लिस्ट में सबसे पहले था--

मूझे बूढ़े किले से मिलने जाना है
और यह जाना मुझे भा नहीं रहा
शायद इसलिये कि मैं इन किलों में
बंधी जंजीरों से बतिया चुकी हूँ
या फिर इसलिये कि इनकी प्राचीरें
मुझे सहज होने से रोकती हैं
लेकिन यह बूढ़ा किला है
जिसकी दीवारों पर लगी काई
पत्थरों से कहीं ज्यादा मजबूत है
मुझे झिझकता देख, उन्होंने बताया
कि ये अब किला नहीं हैं
किले से पिंजरे तक होती हुई इसकी
आत्मा बस भग्नावेश संजो रही है
जिन्होंने भी किले देखे हैं, वे जानते हैं कि
इनके भीतर क्या होता है
कुछ पत्थरी प्राचीरें, कुछ तंग खिड़कियाँ
कुछ गलियारे, कुछ गुम्बदे,
दुश्मन को खोजती पत्थरी आँखें
विश्वास से कुछ ज्यादा अविश्वास
फिर रहस्यमयी सुंरग, चतुर
राजनयिक के बचाव के लिये
जिन्होंने भी किलों का इतिहास पढ़ा
वे जानते हैं कि किले
अधिकतर पराजित होते हैं
या तो गिराये जाते हैं, या फिर खुद
ढ़ल जाते हैं, मिट्टी में धीमे धीमे
फिर भी लोग किलों को देखते हैं
मेरे पास अब किला ना देखने की कोई बजह ही नहीं है

*

अब तक मुझे रा्ते याद हो गए थे, सबसे पहले मैं  समुद्र तट पर बनते शापिंग सेन्टर की ओर गई, इसके बाहर ही एक मेला सा लगा था, जिसमें मूर्तिकला से लेकर तमाम कार्यकलाप हो रह थे। अ करुना जितनी तेजी से ट्युरिस्ट सेन्टर बनता जा रहा है, उनी तेजी से व्यापारिक केन्द्र बनना भी जरूरी है। जब से जहाजीय यात्राओं का चलन हुआ है, इस तरह के बन्दरगाह नगर महत्वपूर्ण हो गए है। तरह तरह की कलाकृतियां देखते , फोटो खींचते में शापिंग सेन्टर के भीतर जाती हूँ। वहाँ पर मैं एक दो हेन्ड बैग खरीदती हूँ। बाहर निकलती हूँ कि देखती हूँ कि एक संगीत टोली पूरी सज धज के साथ बन्दरगाह की ओर जा रही है।
जब से जहाज की यात्राएं जिसे क्रूस ट्यूरिज्म भी कहते हैं , शुरु हुआ है, तब से पुारी रीतियों को मनोरंजक तरीके से चालू कर दिया गया। पुराने जमाने में जब जहाज यात्रा करके आता होगा , तब उसके स्वागत सत्कार के लिए अनेक कार्यक्रम हुआ करते होंगे। उनमें से एक यह संगीतमय स्वागत भी रहा होगा।

सारे कलाकार तरीके से खड़े होकर वाद्य बजाने लगते है. दर्शकों में भी बहुत से लोग हैं, जो आनन्द ले रहे हैँ। तभी क्रूस किनारे आने लगा, और संगीतज्ञ टौली खासी उत्साहोत हो गई। क्रूस में लोग दरवाजे पर खड़े होकर आनन्द ले रहे थे, और इधर भी लोगों का हुजूम था, ऐसा लग रहा था कि कोई अपना ही परदेस से लौटा है, जिसकी खुशी मनाई जा रही है, जब कि असलियत ना संगीत था, ना अपने के लौटने की खुशी, बल्कि घर में चूल्हा जलने की जुगत।–

उनके काले कोटों पर लगे झूठे तमगे
उन्हीं की तरह झमक उठते हैं
जब अनजाने पाहूनो की
महक उन तक पहुँचती है
वे संभाल लेते हैं साज, और सजा
लेते हैं सुर , जहाज के आने से पहले
बिछा देते हैं सुरों का गलियारा
वे थामते हैं अनजाने हाथ, धुनों पर
फिसलने को, खोलते हैं ढपली का पेट
अपने बच्चों का पेट छिपाने को
जमीन से छुलने से पहले
पहुँचा देते हैं गमक सी मींड़,
कदमों की थापों के साथ
जहाज की छत तक,
नाचते हैं, थिरकते हैं, मानों कि
कोई सगा लौट रहा हो
बरसों के प्रवास के बाद,
गले मिलते हैं अनजानों से
कि अपने भी ना मिल पायें
जिस अनजाने पाहुने आते हैं
स्ट्रीट सिंगर के घरों की चिमनी
मछली की गमक को उगलती है
रात बिना साज के ही
गुनगाने लगती हैं

मैं आगे चलने लगी, पुराने किले पर भी पहुँची, और फिर Tower of Hercules जा पहुँची। टिकिट लेकर भीतर पहुंची तो महसूस हुआ कि सदियों का इतहास जमीन पर लेटा है। धूप तेज हो चली थी, समन्दर के किनारे की धूप हमेशा कड़क होती है, मुझे अचानक याद आया कि यदि साड़ी पहनी होती तो पल्लू सिर पर रख लेती,,,
jhatpati kavita


बहुत याद आया मुझे आज
मेरी साड़ी का पल्लू
जिसे कभी भी कमर पर खोंच कर
मैं युद्ध की सूचना दे सकती थी
जिसका सिर पर रहना
मेरी तमीज की पताका होती थी

वही पल्लू,
जिसने मुझे कभी घाम से बचाया
कभी मेरे दागों को पौंछा
और कभी मेरे पसीने को सुखाया

यह वह था, जो बच्चों से
संवाद की डोर था,
जिसमें जिन्दगी की चाभी
लटका करती थी

वही पल्लू , जो मेरे कदमों में
उलझा, जरा बहुत रूठा
फिर जा बैठा पुरानी
बन्द रहने वाली अलमारी में

विदेशी तपन की तीखी बरछी से
कौन बचा सकता है मुझे
मेरी देसी साड़ी के पल्लू के सिवाय

हर काल और शासन के आयुध,,, अन्ततः प्रचीन नाव के नमूने, तट रक्षक,,,, कुछ चीजें सिर्फ महसूस करने के लिए होती है, अजीब सी मिली जुली सी गंध, प्राचीनता में समन्दर की ताजगी की गन्ध, समन्दर को ताजगी कौन देता होगा, वह तो धरती से भी पुरातन है, संभवतया उस उड़ते पंछियों के पंख , या फिर भीतर घर संसार सजाये बैठी मछलियाँ,,,,

बस इसी तरह भटकती भटकती में अकरुना को महसूस करने लगी, इतना कि कभी भी इस नगर को सोचूं तो मेरे भीतर नगर चमक उठे।

शाम को योलाण्डा वापिस आने वाली थी, और लुइस हमें चर्च में होने वाली एक संगीत सभा में ले जाने वाले थे, जहाँ पर पुर्तगाली गायकों का सम्मेलन था।

संगीत के शब्द नहीं होते, भाव भी नहीं, मात्र ध्वनि लहरियाँ जिन्हें बेहद भीतर , सुषुम्ना नाड़ी के भितर महसूस करना होता है।

रात को फिर सह भोजन

दूसरे दिन सुबह योलाण्डा मुझे विदा देने के लिए तैयार थी,

मैं वापिस लौट रही थी,

यात्रा से पहले जितनी समस्याएं आई थीं, यात्रा के दौरान उतना ही आनन्द