Tuesday, January 10, 2017

झील और बन्धनों का टूटना ...

 बस इतना ही करना है
किसी नए शहर में पैठने के लिए,
कोई नई गली पकड़ कर
कोई पगडन्डी की राह थाम,
खरामा खरामा चल देना है

करना इतना ही है कि
गन्तव्य को भूल कर
गलियों के मोड़ों के साथ
घूमते जाना है

रास्ते में उग आई
हर पदचाप को परखना है
हर पात से बात करना है
पतझड़ के रंगं को
भीतर तक उतरने देना है

जब तक कि हरे पीले रंगों को भूल
लाल भूरे रंग ना
ना अंग लगा ले तुम्हें

बस इतना ही करना है कि
हर नुक्कड़, हर छोटी सी दूकान से
उसकी कहानी सुन लेना है
ना जाने कब कोई घुसपैठिया
उनमें पैठ कर ले
और हम रंगो को ही स्वाद समझ लें

करना इतना भी है कि
किसी ट्राम में बैठ, उसके आखिरी
स्टेशन तक चलने का मन मनाना है
फिर आखिरी से एक पहले स्टेशन पर उतर कर
हवा को घूँट घूँट पीते हुए
किसी गलत बस को पकड़
शहर का चक्कर लगाते हुए
लौट आना है

इतना ही तो करना है
एक नये शहर को किसी गीली
ठण्डक में शाल सा ओढ़ने के लिए

भ्रमण के हिज्जों को याद करने के लिए


इस झील और बन्धनों का टूटना झील और बन्धनों का टूटना बीच चीन की यात्रा कर के वापिस लौट आई, कुछ दिनों तक पूरी तरह कमरे में ही बन्द रही, क्यों कि अपने प्रोजेक्ट से समन्धित विचारों को एक रूप रेखा देनी थी, इस बीच बस कभी कदार  झील तक उतर कर जाती और चहलकदमी करती या फिर समान लेने स्टोर में। मैंने देखा कि विचारों को सहेजने के लिए कागज के टुकड़े ज्यादा  कारगार होते हैं, क्यों कि तब ना तो उन्हें सेव करने की चिन्ता होती है, और  ना तारतम्य में लिखने की।  ये नोट पेपर आराम से नोटिस बोर्ड पर चिपका दिए जा सकते हैं। इस बीच बस इतना हुआ कि मेरे बगल में रहने वाले स्पेनिश कलाकार, जो अंग्रेजी के प्रोफेसर भी दो चार बार मिलने आये, और मेरी कविताओं के अंग्रेजी में अनुवाद पर चर्चा करते रहे। फिर उन्होंने जाने से पहले एक छोटा सा कविता पाठ सा रखा, जिसमें केवल हम चार कलाकार, जो विला में रह रहे थे, शामिल हुए, साथ ही एडुवर्ड की खूबसूरत पत्नी और दो बच्चे।
एडुवर्ड को मेरी कविता ड़िफ्यूजी इतनी पसन्द आई कि उन्होंने अपने थियेटर में उसका प्रयोग  करने की परमिशन भी मांगी, मेरे लिए तो खुशी की ही बात थी।

पिछले दिनों में मेरे प्रोजेक्ट की रेखाएँ स्पष्ट होने लगी थी, तो मन में एक विश्वास भी आया।
अभि तक मैंने  ट्रेन का टिकिट नहीं बनवाया था, और मेर घूमना आस पास पैदल ही होता था। लेकिन अब मैंने अगुस्ता की मदद से ट्रेन का मासिक पास खरीद लिया, और स्थानीय नियमों को भी जान लिया। अगुस्ता को छोड़ने के लिए मैं ट्रेन से गई, जिससे एक झिझक मिट जाये।


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पांवों में बन्धन हम खुद बान्धते हैं,  उनके खुलने पर भी दौड़ना शुरु नहीं करते, क्यों का बन्धन का अहसास ही तब असली बन्धन बन जाता है़ , अब मैंने दूसरे दिन से नियम बना लिया कि सुबह उठते ही लिखने पढ़ने बैठ जाती, और करीब तीन बजे के आसपास नहाना धोना शुरु करती और चार बजे घर से निकल जाती, फिर जो ट्रेन आती उसे पकड़ सबसे पहलेस्टानबर्ग स्टेशन चलि जाती।

विस्तार में फैली झील, अलग अलग तट, कहीं महिलाएं धूप स्नान कर रही है, कहीं बतकें तट पर आकर दर्शकों का मन बहला कर भोजन कमा रही हैं, तो कहीं जहाज से लोग उतर रहे हैं, उन दिनों अच्छी धूप थी, और धूप में पूरा जर्मनी बाहर निकल पड़ता हैं। मैं घन्टों टहलती रही, और फिर ट्रेन पकड़ कर लौट आई। यूरोप में उम्र की कोई बाधा नहीं, मैंने ना जाने कितने वृद्धों को अकेले या मित्रों के साथ झील के किनारे देखा, यहाँ अकेले घूमना भी सवाल नहीं खड़े करता है।  मुझे लगा कि हमारे देश में हम अपने आसपास ना जाने कितने बन्धन बाँढ़ लेते हैं। केरल में तो मैं घर से बाहर यदि पैदल निकल गई तो दो चार महिलाएं रोक कर पूछ ही लेती हैं, कि कहाँ जा रही हूँ, या कहाँ से आ रही हूं। मानो की मेरे आने जाने का सम्बन्ध उनके अपने जीवन से भी जुड़ा हो। अधिकतर ये महिलाएँ घरेलू सहायिकाएं होती हैं, लेकिन इस तरह के सवाल मात्र उनके संवाद में सहायक भूमिका निभाने के लिए होते हैं।

जल को जीवन कहना संभवतया इसलिये भी उचित होता है कि इसके समीप आते ही हम एक अलग ताजगी पाते हैं। जल में बच्चे सी खिलखिलाहट होती है, हलचल होती है, जल से जीवन है, यह विचार यूँ ही तो नहीं आया।

अब मैंने धीरे धीरे आगे के स्टेशनो पर जाना शुरु किया। गूगल सर्च करके, म्यूजिमों का पता नोट किया, और  उनकी यात्रा पर भी चलने लगी।

यहाँ इतवार को म्यूजम में एन्ट्री फीस केवल एक यूरों होती है तो सबसे पहले रविवार कौ ही म्यूजम गई। सबसे पहली यात्रा  Pinakothek der Moderne की थी, जिसके बारे में आगे आराम से चर्चा करूंगी, क्यों कि म्यूजिम को देखना एक अलग अनुभव होता है।

झील का वह स्टेशन दिखाई दिया, जहाँ झील का पूरा आनन्द लिया जा सकता है।
पांवों में बन्ढ़न हम खुद बान्धते हैं,  उनके खुलने पर भी दौड़ना शुरु नहीं करते, क्यों का बन्धन का अहसास ही तब असली बन्धन बन जाता है़ , अब मैंने दूसरे दिन से नियम बना लिया कि सुबह उठते ही लिखने पढ़ने बैठ जाती, और करीब तीन बजे के आसपास नहाना धोना शुरु करती और चार बजे घर से निकल जाती, फिर जो ट्रेन आती उसे पकड़ सबसे पहले स्टानबर्ग स्टेशन चली जाती।

विस्तार में फैली झील, अलग अलग तट, कहीं महिलाएं धूप स्नान कर रही है, कहीं बतकें तट पर आकर दर्शकों का मन बहला कर भोजन कमा रही हैं, तो कहीं जहाज से लोग उतर रहे हैं, उन दिनों अच्छी धूप थी, और धूप में पूरा जर्मनी बाहर निकल पड़ता हैं। मैं घन्टों टहलती रही, और फिर ट्रेन पकड़ कर लौट आई। यूरोप में उम्र की कोई बाधा नहीं, मैंने ना जाने कितने वृद्धों को अकेले या मित्रों के साथ झील के किनारे देखा, यहाँ अकेले घूमना भी सवाल नहीं खड़े करता है।  मुझे लगा कि हमारे देश में हम अपने आसपास ना जाने कितने बन्धन बाँढ़ लेते हैं। केरल में तो मैं घर से बाहर यदि पैदल निकल गई तो दो चार महिलाएं रोक कर पूछ ही लेती हैं, कि कहाँ जा रही हूँ, या कहाँ से आ रही हूं। मानो की मेरे आने जाने का सम्बन्ध उनके अपने जीवन से भी जुड़ा हो। अधिकतर ये महिलाएँ घरेलू सहायिकाएं होती हैं, लेकिन इस तरह के सवाल मात्र उनके संवाद में सहायक भूमिका निभाने के लिए होते हैं।

जल को जीवन कहना संभवतया इसलिये भी उचित होता है कि इसके समीप आते ही हम एक अलग ताजगी पाते हैं। जल में बच्चे सी खिलखिलाहट होती है, हलचल होती है, जल से जीवन है, यह विचार यूँ ही तो नहीं आया।

अब मैंने धीरे धीरे आगे के स्टेशनोपर जाना शुरु किया। गूगल सर्च करके, म्यूजिमों का पता नोट किया, और  उनकी यात्रा पर भी चलने लगी।

यहाँ इतवार को म्यूजम में एन्ट्री फीस केवल एक यूरों होती है तो सबसे पहले रविवार कौ ही म्यूजम गई। सबसे पहली यात्रा  Pinakothek der Moderne की थी, जिसके बारे में आगे आराम से चर्चा करूंगी, क्यों कि म्यूजिम को देखना एक अलग अनुभव होता है।

झील का वह स्टेशन दिखाई दिया, जहाँ झील का पूरा आनन्द लिया जा सकता है।
पांवों में बन्ढ़न हम खुद बान्धते हैं,  उनके खुलने पर भी दौड़ना शुरु नहीं करते, क्यों का बन्धन का अहसास ही तब असली बन्धन बन जाता है़ , अब मैंने दूसरे दिन से नियम बना लिया कि सुबह उठते ही लिखने पढ़ने बैठ जाती, और करीब तीन बजे के आसपास नहाना धोना शुरु करती और चार बजे घर से निकल जाती, फिर जो ट्रेन आती उसे पकड़ सबसे पहले स्टानबर्ग  स्टेशन चली जाती।

विस्तार में फैली झील, अलग अलग तट, कहीं महिलाएं धूप स्नान कर रही है, कहीं बतखें तट पर आकर दर्शकों का मन बहला कर भोजन कमा रही हैं, तो कहीं जहाज से लोग उतर रहे हैं, उन दिनों अच्छी धूप थी, और धूप में पूरा जर्मनी बाहर निकल पड़ता हैं। मैं घन्टों टहलती रही, और फिर ट्रेन पकड़ कर लौट आई। यूरोप में उम्र की कोई बाधा नहीं, मैंने ना जाने कितने वृद्धों को अकेले या मित्रों के साथ झील के किनारे देखा, यहाँ अकेले घूमना भी सवाल नहीं खड़े करता है।  मुझे लगा कि हमारे देश में हम अपने आसपास ना जाने कितने बन्धन बाँढ़ लेते हैं। केरल में तो मैं घर से बाहर यदि पैदल निकल गई तो दो चार महिलाएं रोक कर पूछ ही लेती हैं, कि कहाँ जा रही हूँ, या कहाँ से आ रही हूं। मानो की मेरे आने जाने का सम्बन्ध उनके अपने जीवन से भी जुड़ा हो। अधिकतर ये महिलाएँ घरेलू सहायिकाएं होती हैं, लेकिन इस तरह के सवाल मात्र उनके संवाद में सहायक भूमिका निभाने के लिए होते हैं।

जल को जीवन कहना संभवतया इसलिये भी उचित होता है कि इसके समीप आते ही हम एक अलग ताजगी पाते हैं। जल में बच्चे सी खिलखिलाहट होती है, हलचल होती है, जल से जीवन है, यह विचार यूँ ही तो नहीं आया।

अब मैंने धीरे धीरे आगे के स्टेशनोपर जाना शुरु किया। गूगल सर्च करके, म्यूजियमों का पता नोट किया, और  उनकी यात्रा पर भी चलने लगी।

यहाँ इतवार को म्यूजम में एन्ट्री फीस केवल एक यूरों होती है तो सबसे पहले रविवार कौ ही म्यूजियम गई। सबसे पहली यात्रा  Pinakothek der Moderne की थी, जिसके बारे में आगे आराम से चर्चा करूंगी, क्यों कि म्यूजिम को देखना एक अलग अनुभव होता है।


Wednesday, January 4, 2017

Villa Walbreta-3

 अभी अभी तो यहीं थी, ठीक मेरी खिड़की
के सामने
वह नदी कहाँ गई??????

नदी का खोना जिन्दगी की पैरहन से गलहार का उतरना है,

कल जिस झील को अपनी बालकनी से देख कर मैं मन्त्रमुग्ध हो रही थी, वह मानो पूरी तरफ गायब थी, दिल धक्क सा रह गया, कहीं यह बुरा सपना तो नहीं, लेकिन जब आँखें कुछ स्थिर हुई तो पाया कि नदी कोहरे से ढ़ंक गई  है, झील के पीछे झांकती पहाड़ियों की गर्दन तक कोहरे की चादर चढ़ गई है।

मैं गरम कपड़े पहन कर बाहर निकल पड़ती हूं", कुछ पैदल चलने के मोह से, और रास्ते पहचानना भी चाहती हूँ, विला पहाड़ी पर है, फिल्डाफिंग रेलवे स्टेशन से उतर कर ऊपर चढ़ना पड़ता है,  इसलिये सड़क मानों गोलाई में घुमती सी लगती है, मुझे अभी तक रास्तों की पहचान नहीं हो पाई है, यूरोप में हर जगह नक्शे बने होते हैं, और ज्यादातर लोग नक्शा पढ़ कर चलते हैं, लेकिन मुझे नक्शे समझ ही नहीं आते।
मेरे लिए सहज है पूछ कर चलना, और मैंअधकतर यही रास्ता अपनाती हूँ, लेकिन इस जन रहित गाँव से प्रान्त में मार्निंग वाक के लिये क्या पूँछू, किससे पूँछू, तो बस एक दिशा पकड़ कर चल देती हूँ, और सोचती हूँ कि कुछ चलने के बाद इसी रास्ते से लौट आऊंगी,

चलते चलते मैं अपने प्रोजेक्ट के बारे में सोचती हूँ, कैसे आरम्भ करू। सड़क के किनारे छोटे छोटे आलूबुखारे का दरख्त हैं, जिसने अध पके फलों को नीचे गिरा दिया है, मैं एक फल उठा कर पौँच कर मुंह में रखती हूँ। बचपन में मामा के गाँव में जमीन पर गिरे फलों को ना जाने कितनी बार खाया है... खट्टमिट्ठा बुखारा अपने रस को भीतर तक निचौड़ देता है।

. सबसे पहले यही सोचा कि बस वैसे ही अपने आप को खाली करना पड़ेगा, जैसे कि सड़क के किनारे लगे आलूबुखारे के दरख्त ने अपने को खाली कर दिया। पके फलों को इस तरह से झाड़ दिया कि मानों कोई सम्बन्ध ही ना हो। मोह को झाड़ना बस दरख्तों को आता है, फल पक गये, एक चक्र पूरा हो गया, उन्हें  जाना है,

मैं नीचे झुक कर उन फलों को बटोरने का सोचती हूँ, लेकिन अधिकतर फट चके हैं, फलों को क्या फरक पड़ता है कि उन्हे पंछी खाये या वे जमीन के कीड़े,,,, उनकी नियति सिर्फ पकना है, और वे ये काम शिद्दत से करते हैं, यह इंसान ही है जो कच्चे पक्के फलों को समय से पहले पकाना चाहता है, निसन्देह समय से पहले पकने में फलों का दम जरूर घुटता होगा....

हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के चक्र को तोड़ना नहीं चाहा, फल भी  खाये तो दरख्त से मांग कर खाये, अपने देह दर्द के उपचार करने को भी छीना झप्पट्टी नहीं की,,,, अथर्ववेद के समस्त उपचार सम्बन्धी मन्त्रो में प्रकृति से प्रार्थना की है। उनसे सहयोग मांगा है, तभी तो उनका उपचार सफल हुआ होगा।

यही प्रोजेक्ट लेकर आई हूँ ना मैं,,,,

आज पहले दिन की यात्रा ने ही काफी बीज दिये हैं सोचने को, मैं आकर कुछ नोट्स बनाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन ना जाने क्यों अब मुझे लेपटाप की जगह कागज पन्नों में लिखना भा रहा है।  विला की डायरेक्टर की तरफ से खत आया है कि बारह तारीख को दस बजे म्यूनिख  की पत्रकार इन्टर्व्यू लेने आयेंगी,  हम पाँचो आर्टिस्टों को अपने अपने प्रोजेक्ट  के बारे में बात करनी है।
इसलिए मैंने अपने मन में एक रूप रेखा बनानी शुरु कर दी।

इस बेहद खूबसूरत सन्नाटे में मेरा दीमाग दो रास्ते पर चलने लगा है, एक और मैं अपने प्रोजेक्ट के बारे में सोचती हूँ तो दूसरी ओर मेरी अच्छी बुरी स्मृतियाँ मुझ पर बन्दर के बच्चे सी चढ़ गई हैं।

यह जाना है कि विश्वास टूटने के लिए ही होता है, और यह भी कि  मोह के धागे मजबूत होते हैं, लेकिन उन्हें कच्चा करना भी एक जरूरत है, जितना हम धागों से उलझते जाते हैं, उतने वे हमसे लिपटते जाते हैं, ..

फिर भी क्या जरुरत थी ऋषि मुनियों को पहाड़ो पर जाने की, क्यों बुद्धत्व के लिये ऊँचाई का महत्व बढ़ता गया.... अजीब बात यह भी है कि  वे जितना ऊपर चढ़ते थे, उतना वे उतारते भी जाते थे, लबादे कम होते जाते, अन्त में बस एक चीर,,,,

मेरा दीमाग भी खुल रहा है,,,,,,

विषय कुछ अधिक स्पष्ट हो रहा है, कितने बरस बीत गए प्रकृति से सीधा समन्ध बनाये जमाना बीत गया, बचपन में मामा के गाँव में बितायें दिनों के अलावा शायद ही कभी प्रकृति के इतने निकट रहने का मौका मिला हो. चिड़ियों की चहचहाट इतनी स्पष्ट शायद ही कभी सुनाई दी हों। हवा की सरसराहट, बादलों का रंग बदलना, सब कुछ कितना नया नया लग रहा है....

11.8.16

Tuesday, January 3, 2017

Villa Walabreta - Andechs Abbey

अपने जर्मनी प्रवास के बारे में सोचने बैठती हूँ तो पूरा वक्त चलचित्र सा आँखों के सामने गुजर जाता है। एक खुशनुमा चित्र, ...

जब मैं वालब्रेटा में  अपने अपार्टमेन्ट में पहुँची तो लगा कि फिल्म की रील धीरे ‍- धीरे खुल रही है, लेकिन बहुत स्पष्ट नहीं है़ । ऐसी स्थित  मेरे साथ हर यात्रा में होती है,  हर बार नये पन्ने खुलते हैं,लेकिन किताब के खुलने में वक्त लगता है। तभी युवा शोरलेट्टे मेरे कमरे में आईं, और बोली कि, कल हम लोग - Andechs Abbey  जाने वाले हैं, यदि मैं चाहूं तो साथ चल सकती हूँ, उस वक्त मैं इतनी थकी थी कि मुंह से आवाज तक नहीं निकल रही थी, लेकिन मैंने धन्यवाद देते हुए कहा कि मैं सोचती हूँ कि मैं चल सकूंगी, बस आज अच्छी तरह से आराम करना पड़ेगा।
आप मुझे वक्त बता दे, जब मुझे तैयार होना है, उन्होंने कहा कि हम लोग 8  बजे तक विला से निकल जायेंगे, साथ में जापानी कलाकार हिसाको भी है। मैंने अगले दिन मिलने का वायदा किया और सोचने लगी कि किस तरह से अपने को तैयार करना है।
मेरा अपार्टमेन्ट मेरे लिये ड्रीम हाउस था। झील और बालकनी की तरफ खुलता बेडरूम, और लम्बा सा स्टडी, जिसके एक तरफ लम्बी सी बालकनी थी। बालकनी के दरवाजे से कमरे के भीतर तक आती हुई  धूप,कुनकुनी सी सर्दी, अपने बचपन की रजवाड़ी सर्दी का अहसास दिलवाती हुई, , मैंने धूप के सामने अपनी रजाई फैला ली और उस पर सो गई. ना जाने कितना अर्सा बीत गया था धूप में सोए हुए, इसलिये सोना जारी रहा।

देर शाम को उठी तो जरा बहुत कमरा लगाया , सामान अलमारियों मे जमाया, क्यों कि चार पाँच दिन बाद चीन की यात्रा थी, इसलिए वो कपड़े अलग किये जो साथ लेजाने थे, क्यों कि इस बार मैं छोटा वाला सूटकेस ही साथ लेजाने का विचार कर चुकी थी। एनरेटे नें सुबह शापिंग करवा ही दी थी, तो रसोई में जाकर खाना बनाना ही रह गया था। जिस तरह के बर्तन थे, उनमें भारतीय खाना बनाना मूर्खता ही होती तो ब्रेड के साथ फल सब्जिया काट कर आराम से भोजन किया और फिर सो गई, लेकिन अब तक अगले दिन  Andechs Abbey जाने की ताकत आ गई थी। यूरोप के बारे में मुझे एक बात की जानकारी तो थी कि यहाँ मौसम मिनिट- मिनिट में बदलता है, लेकिन कल का मौसम क्या होगा, Andechs Abbey कैसी जगह है, वहाँ किस तरह के कपड़ों की जरूरत होगी, समझ नहीं पा रही थी।

अपने साथ केवल 23 किलों सामान ला सकती थी, जिनमें कपड़ों के साथ किताबें भी थीं, तो गरम कपड़ों के नाम पर एक कोट और एक स्वेटर ही साथ था, कपड़े के जूते भी साथ नहीं रख पाई थी, इसलिये सोच विचार में तो थी, लेकिन फिर सोचा , जो होगा देखा जायेगा, दूसरे दिन के लिए कुछ कपड़े निकाल कर फिर सो गई। दूसरे दिन तड़के ही नीन्द खुल गई, सुबह आठ बजे तक नीचे इकट्ठे होने की बात थी, तो मुझे नहाने धोने और तैयार होने में वक्त नहीं लगा।
शोरलेट्टे  जर्मन मूल की है लेकिन आर्मस्ट्रंग की वासी  कलाकार है, जो बेहद अनूठी कलाकारिता के कारण मुझे पसन्द आईं। वे अपने मंगेतर के साथ कार में आई थीं, और मंगेतर दो दिनों में वापिस लौटने वाले थे, तो शायद कार के सही उपयोग के लिए उन्होंने मुझे और अन्य जापानी कलाकार को भी अपनी यात्रा में शामिल कर लिया था।

हम लोग वक्त पर रवाना हो गये, शोरलेट्टे और उसके मंगेतर , और जापान की हिसाको।
Andechs Abbey  एक तीर्थयात्रा स्थल ही माना जा सकता है जो स्तानबर्ग नामक झील के करीब पहाड़ी पर स्थित है। लेकिन मजे की बात यह कि यह स्थल अपनी बीयर के भी लोकप्रिय है। यह बीयर चर्च में बनाई जाती है, लोग कहते हैं कि लोग यहाँ बीयर और जर्मनी का लोकप्रिय खाना भुना पोर्क बेहद पसन्द किया जाता है।

मेरे लिए  सब कुछ अनजाना सा था, कोई भी राह समझ में नहीं आ रही था। हम लोग एक पहाड़ी के नीचे पहुँचे, और वहाँ से पैदल चलना शुरु किया। यूरोप में भी तीर्थ स्थानों में पैदल चल कर पहुँचने का रिवाज है, अनेक तीर्थस्थल पहाड़ियों पर स्थित हैं।
संभवतया  प्रकृति के करीब पहुंचना देव के करीब पहुंचने का पर्याय ही तो है।
हम लोग खरामा - खरामा चढ़ाई चढ़ने लगे, बीच बीच में रुकते, पेड़ पत्रियों को परखते, घाटी से झांकते, और फिर चल देते। यही अन्तर होता है कलाकारों के साथ की गई यात्रा और सामान्य यात्रियों में। हम चारों लोग चार क्षेत्र के थे, शोरलेटे के मंगेतर मूलतया फोटोग्राफरथे, तो उनकी निगाह फोटोजनिक दृश्यों कों खोजती। हिसाकों का सम्बन्ध सुगनधों से था,  वे हर खुशबू को पहचानने की कोशिश करतीं। शोरलेटे का विषय चित्रकारिता और धातु कला थी, और आकृति ही उनके लिये प्रधान थी, इसलिये, वे हर आकृति को देखती, मैं उन तीनों की दृष्टि का लाभ अपने विषय में खोज रही थी।

काफी देर तक हम आनन्द लेते चलते रहे, लेकिन बाद में सीढ़िया आ गई, मेरे साथ सबसे बड़ी समस्या सीढ़ियों की होती है, मैं सीढ़ी चढ़ते ही बुरी तरह हाँफने लगती हूँ, जिम जाना भी इस परेशानी को खत्म नहीं कर पाया है।
निसन्देह ऊपर तक पहुँचते पहुँचते मेरी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। लेकिन हम अब तक चर्च पहुंच चुके थे।

ये चर्च संभवतया रोमन काल का है , और साधारण बनावट का है। इसकी छत से म्यूनिख शहर दिख सकता है, लेकिन मेरी और सीढ़ियां चढ़ने की हिम्मत ही नहीं हुई। मैं खिड़की पर बैठ कर वातावरण का अनुभव लेने लगी। अगर इतिहास और विश्वास को दरकिनार कर दूं तो यह चर्च बेहद साधारण लगा, खास तौर से इसलिए कि मैं मैं रोम, वेनिस अदि के बेहतरीन चर्चों को देख चुकी थी।  फिर मुझे लगा कि यह साधारण इमारत ही इसकी खासियत है, यह निसन्देह प्रार्थना केन्द्र रहा होगा, जहाँ भव्यता या चमक से प्रार्थना को अधिक महत्व दिया जाता रहा होगा। बाद में कुछ लोगों ने यह भी बताया कि लोग यहाँ की बेहतरीन बीयर से आकर्षित होकर आते हैं, यहाँ सात तरह की बीयर मिलती हैं। बात सच भी लगी, क्यों कि जब हम चर्च के करीब भोजन स्थल में पहुँचे तो देखा कि जगह ठसाठस भरी थी। लोग बीयर और पोर्क का आनन्द उठा रहे थे, भुना पोर्क जिसकी आकृति एक साबुत मुर्गे सी तो होगी, कई तश्तरियों में दिखाई दे रहा था।

हम लोगों अपने अपने खाने की लाइन में लग गए , मैंने खास बावेरियन चिकन का एक दुकड़ा और ब्रेड ली। सबने अपनी अपनी पसन्द का खाना लिया। खाने का आनन्द यहीं पर दिखाई दिया। मैंने देखा कि लोग आपस में खूब घुलते -मिलते हैं, और खूब गप्पबाजी भी करते हैं। ऐसा लगा कि यहाँ हर कोई हर किसी को जानता है,

हंसते खिलखिलाते लोगों के साथ बैठ कर खाना खाना अच्छा अनुभव होता है ।जब शाम होने लगी तो हम लौटने को तैयार हुए,,,,,
लौटते वक्त हम लोग बीयर लाकर में गए, जहाँ बीयर के बड़े बड़े ढोल की आकृति के बर्तन रखे थे, वहा पर बकायदा लाकर थे, जिसमें लोग अपने बीयर पीने के जार के साथ अपनी बीयर भी रख सकते हैं। उस लम्बे से हाल में बीयर को सुरक्षित रखने वाले जो बर्तन थे, वे पुरातन काल के ज्यादा लग रहे थे। निसन्देह यह चर्च ऐसी जगह बन गया है जहाँ लोग हर सप्ताह आकर बीयर आदि का आनन्द उठा लें... विश्वास में आनन्द भी शामिल हो तो क्या बात है।
सीढ़ियों कपर  चढ़ने पर मेरी सांस फूलने की स्थिति को देख शोरलेट्टे चिन्तित थीं, उन्होने पूछा कि मैं चाहूं तो मैं यही इंतजार कर सकती हूँ, और वे लोग कार लेक र मुझे लेने आ जायेंगे, लेकिन मैंने मना कर दिया, क्यों कि मैं जानती थी कि उतरना मुश्किल नहीं होता है।
लौटते वक्त मैं और शोरलोट्टे साथ थे, हम लोग राजनीतिक स्थितियों की बात करने लगे। मैंने कहा कि युद्ध के बाद जर्मनों के साथ जो कुछ हुआ, वह भी दुखद था, क्यों कि समस्या किसी एक राजनेता ने उत्पन्न की थी।

तो शोरलोट्टे ने जवाब दिया.. "जब जनता किसी गलत नेता को चुनती है तो वह उसके पाप में बराबर की भागीदार बन जाती है,,,,"

"निसन्देह, लेकिन जनता भीड़तन्त्र के साथ चलती है",,,,,

"फिर भी गलती तो है ही", शोरलेट्टे का जवाब था।

गलती का पता जब तक लगता है, अकसर देर हो जाती है, मैं कहना चाहती थी, लेकिन चुप रही।

जर्मनी के हिसाब से बेहतरीन मौसम था, और मेरे लिए सुन्दर दिन

क्रमशंः


10.8.1016