Tuesday, January 10, 2017

झील और बन्धनों का टूटना ...

 बस इतना ही करना है
किसी नए शहर में पैठने के लिए,
कोई नई गली पकड़ कर
कोई पगडन्डी की राह थाम,
खरामा खरामा चल देना है

करना इतना ही है कि
गन्तव्य को भूल कर
गलियों के मोड़ों के साथ
घूमते जाना है

रास्ते में उग आई
हर पदचाप को परखना है
हर पात से बात करना है
पतझड़ के रंगं को
भीतर तक उतरने देना है

जब तक कि हरे पीले रंगों को भूल
लाल भूरे रंग ना
ना अंग लगा ले तुम्हें

बस इतना ही करना है कि
हर नुक्कड़, हर छोटी सी दूकान से
उसकी कहानी सुन लेना है
ना जाने कब कोई घुसपैठिया
उनमें पैठ कर ले
और हम रंगो को ही स्वाद समझ लें

करना इतना भी है कि
किसी ट्राम में बैठ, उसके आखिरी
स्टेशन तक चलने का मन मनाना है
फिर आखिरी से एक पहले स्टेशन पर उतर कर
हवा को घूँट घूँट पीते हुए
किसी गलत बस को पकड़
शहर का चक्कर लगाते हुए
लौट आना है

इतना ही तो करना है
एक नये शहर को किसी गीली
ठण्डक में शाल सा ओढ़ने के लिए

भ्रमण के हिज्जों को याद करने के लिए


इस झील और बन्धनों का टूटना झील और बन्धनों का टूटना बीच चीन की यात्रा कर के वापिस लौट आई, कुछ दिनों तक पूरी तरह कमरे में ही बन्द रही, क्यों कि अपने प्रोजेक्ट से समन्धित विचारों को एक रूप रेखा देनी थी, इस बीच बस कभी कदार  झील तक उतर कर जाती और चहलकदमी करती या फिर समान लेने स्टोर में। मैंने देखा कि विचारों को सहेजने के लिए कागज के टुकड़े ज्यादा  कारगार होते हैं, क्यों कि तब ना तो उन्हें सेव करने की चिन्ता होती है, और  ना तारतम्य में लिखने की।  ये नोट पेपर आराम से नोटिस बोर्ड पर चिपका दिए जा सकते हैं। इस बीच बस इतना हुआ कि मेरे बगल में रहने वाले स्पेनिश कलाकार, जो अंग्रेजी के प्रोफेसर भी दो चार बार मिलने आये, और मेरी कविताओं के अंग्रेजी में अनुवाद पर चर्चा करते रहे। फिर उन्होंने जाने से पहले एक छोटा सा कविता पाठ सा रखा, जिसमें केवल हम चार कलाकार, जो विला में रह रहे थे, शामिल हुए, साथ ही एडुवर्ड की खूबसूरत पत्नी और दो बच्चे।
एडुवर्ड को मेरी कविता ड़िफ्यूजी इतनी पसन्द आई कि उन्होंने अपने थियेटर में उसका प्रयोग  करने की परमिशन भी मांगी, मेरे लिए तो खुशी की ही बात थी।

पिछले दिनों में मेरे प्रोजेक्ट की रेखाएँ स्पष्ट होने लगी थी, तो मन में एक विश्वास भी आया।
अभि तक मैंने  ट्रेन का टिकिट नहीं बनवाया था, और मेर घूमना आस पास पैदल ही होता था। लेकिन अब मैंने अगुस्ता की मदद से ट्रेन का मासिक पास खरीद लिया, और स्थानीय नियमों को भी जान लिया। अगुस्ता को छोड़ने के लिए मैं ट्रेन से गई, जिससे एक झिझक मिट जाये।


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पांवों में बन्धन हम खुद बान्धते हैं,  उनके खुलने पर भी दौड़ना शुरु नहीं करते, क्यों का बन्धन का अहसास ही तब असली बन्धन बन जाता है़ , अब मैंने दूसरे दिन से नियम बना लिया कि सुबह उठते ही लिखने पढ़ने बैठ जाती, और करीब तीन बजे के आसपास नहाना धोना शुरु करती और चार बजे घर से निकल जाती, फिर जो ट्रेन आती उसे पकड़ सबसे पहलेस्टानबर्ग स्टेशन चलि जाती।

विस्तार में फैली झील, अलग अलग तट, कहीं महिलाएं धूप स्नान कर रही है, कहीं बतकें तट पर आकर दर्शकों का मन बहला कर भोजन कमा रही हैं, तो कहीं जहाज से लोग उतर रहे हैं, उन दिनों अच्छी धूप थी, और धूप में पूरा जर्मनी बाहर निकल पड़ता हैं। मैं घन्टों टहलती रही, और फिर ट्रेन पकड़ कर लौट आई। यूरोप में उम्र की कोई बाधा नहीं, मैंने ना जाने कितने वृद्धों को अकेले या मित्रों के साथ झील के किनारे देखा, यहाँ अकेले घूमना भी सवाल नहीं खड़े करता है।  मुझे लगा कि हमारे देश में हम अपने आसपास ना जाने कितने बन्धन बाँढ़ लेते हैं। केरल में तो मैं घर से बाहर यदि पैदल निकल गई तो दो चार महिलाएं रोक कर पूछ ही लेती हैं, कि कहाँ जा रही हूँ, या कहाँ से आ रही हूं। मानो की मेरे आने जाने का सम्बन्ध उनके अपने जीवन से भी जुड़ा हो। अधिकतर ये महिलाएँ घरेलू सहायिकाएं होती हैं, लेकिन इस तरह के सवाल मात्र उनके संवाद में सहायक भूमिका निभाने के लिए होते हैं।

जल को जीवन कहना संभवतया इसलिये भी उचित होता है कि इसके समीप आते ही हम एक अलग ताजगी पाते हैं। जल में बच्चे सी खिलखिलाहट होती है, हलचल होती है, जल से जीवन है, यह विचार यूँ ही तो नहीं आया।

अब मैंने धीरे धीरे आगे के स्टेशनो पर जाना शुरु किया। गूगल सर्च करके, म्यूजिमों का पता नोट किया, और  उनकी यात्रा पर भी चलने लगी।

यहाँ इतवार को म्यूजम में एन्ट्री फीस केवल एक यूरों होती है तो सबसे पहले रविवार कौ ही म्यूजम गई। सबसे पहली यात्रा  Pinakothek der Moderne की थी, जिसके बारे में आगे आराम से चर्चा करूंगी, क्यों कि म्यूजिम को देखना एक अलग अनुभव होता है।

झील का वह स्टेशन दिखाई दिया, जहाँ झील का पूरा आनन्द लिया जा सकता है।
पांवों में बन्ढ़न हम खुद बान्धते हैं,  उनके खुलने पर भी दौड़ना शुरु नहीं करते, क्यों का बन्धन का अहसास ही तब असली बन्धन बन जाता है़ , अब मैंने दूसरे दिन से नियम बना लिया कि सुबह उठते ही लिखने पढ़ने बैठ जाती, और करीब तीन बजे के आसपास नहाना धोना शुरु करती और चार बजे घर से निकल जाती, फिर जो ट्रेन आती उसे पकड़ सबसे पहले स्टानबर्ग स्टेशन चली जाती।

विस्तार में फैली झील, अलग अलग तट, कहीं महिलाएं धूप स्नान कर रही है, कहीं बतकें तट पर आकर दर्शकों का मन बहला कर भोजन कमा रही हैं, तो कहीं जहाज से लोग उतर रहे हैं, उन दिनों अच्छी धूप थी, और धूप में पूरा जर्मनी बाहर निकल पड़ता हैं। मैं घन्टों टहलती रही, और फिर ट्रेन पकड़ कर लौट आई। यूरोप में उम्र की कोई बाधा नहीं, मैंने ना जाने कितने वृद्धों को अकेले या मित्रों के साथ झील के किनारे देखा, यहाँ अकेले घूमना भी सवाल नहीं खड़े करता है।  मुझे लगा कि हमारे देश में हम अपने आसपास ना जाने कितने बन्धन बाँढ़ लेते हैं। केरल में तो मैं घर से बाहर यदि पैदल निकल गई तो दो चार महिलाएं रोक कर पूछ ही लेती हैं, कि कहाँ जा रही हूँ, या कहाँ से आ रही हूं। मानो की मेरे आने जाने का सम्बन्ध उनके अपने जीवन से भी जुड़ा हो। अधिकतर ये महिलाएँ घरेलू सहायिकाएं होती हैं, लेकिन इस तरह के सवाल मात्र उनके संवाद में सहायक भूमिका निभाने के लिए होते हैं।

जल को जीवन कहना संभवतया इसलिये भी उचित होता है कि इसके समीप आते ही हम एक अलग ताजगी पाते हैं। जल में बच्चे सी खिलखिलाहट होती है, हलचल होती है, जल से जीवन है, यह विचार यूँ ही तो नहीं आया।

अब मैंने धीरे धीरे आगे के स्टेशनोपर जाना शुरु किया। गूगल सर्च करके, म्यूजिमों का पता नोट किया, और  उनकी यात्रा पर भी चलने लगी।

यहाँ इतवार को म्यूजम में एन्ट्री फीस केवल एक यूरों होती है तो सबसे पहले रविवार कौ ही म्यूजम गई। सबसे पहली यात्रा  Pinakothek der Moderne की थी, जिसके बारे में आगे आराम से चर्चा करूंगी, क्यों कि म्यूजिम को देखना एक अलग अनुभव होता है।

झील का वह स्टेशन दिखाई दिया, जहाँ झील का पूरा आनन्द लिया जा सकता है।
पांवों में बन्ढ़न हम खुद बान्धते हैं,  उनके खुलने पर भी दौड़ना शुरु नहीं करते, क्यों का बन्धन का अहसास ही तब असली बन्धन बन जाता है़ , अब मैंने दूसरे दिन से नियम बना लिया कि सुबह उठते ही लिखने पढ़ने बैठ जाती, और करीब तीन बजे के आसपास नहाना धोना शुरु करती और चार बजे घर से निकल जाती, फिर जो ट्रेन आती उसे पकड़ सबसे पहले स्टानबर्ग  स्टेशन चली जाती।

विस्तार में फैली झील, अलग अलग तट, कहीं महिलाएं धूप स्नान कर रही है, कहीं बतखें तट पर आकर दर्शकों का मन बहला कर भोजन कमा रही हैं, तो कहीं जहाज से लोग उतर रहे हैं, उन दिनों अच्छी धूप थी, और धूप में पूरा जर्मनी बाहर निकल पड़ता हैं। मैं घन्टों टहलती रही, और फिर ट्रेन पकड़ कर लौट आई। यूरोप में उम्र की कोई बाधा नहीं, मैंने ना जाने कितने वृद्धों को अकेले या मित्रों के साथ झील के किनारे देखा, यहाँ अकेले घूमना भी सवाल नहीं खड़े करता है।  मुझे लगा कि हमारे देश में हम अपने आसपास ना जाने कितने बन्धन बाँढ़ लेते हैं। केरल में तो मैं घर से बाहर यदि पैदल निकल गई तो दो चार महिलाएं रोक कर पूछ ही लेती हैं, कि कहाँ जा रही हूँ, या कहाँ से आ रही हूं। मानो की मेरे आने जाने का सम्बन्ध उनके अपने जीवन से भी जुड़ा हो। अधिकतर ये महिलाएँ घरेलू सहायिकाएं होती हैं, लेकिन इस तरह के सवाल मात्र उनके संवाद में सहायक भूमिका निभाने के लिए होते हैं।

जल को जीवन कहना संभवतया इसलिये भी उचित होता है कि इसके समीप आते ही हम एक अलग ताजगी पाते हैं। जल में बच्चे सी खिलखिलाहट होती है, हलचल होती है, जल से जीवन है, यह विचार यूँ ही तो नहीं आया।

अब मैंने धीरे धीरे आगे के स्टेशनोपर जाना शुरु किया। गूगल सर्च करके, म्यूजियमों का पता नोट किया, और  उनकी यात्रा पर भी चलने लगी।

यहाँ इतवार को म्यूजम में एन्ट्री फीस केवल एक यूरों होती है तो सबसे पहले रविवार कौ ही म्यूजियम गई। सबसे पहली यात्रा  Pinakothek der Moderne की थी, जिसके बारे में आगे आराम से चर्चा करूंगी, क्यों कि म्यूजिम को देखना एक अलग अनुभव होता है।