Wednesday, November 30, 2016

सान्त्र्यागो, स्पेन की तीर्थ नगरी



किले

मूझे बूढ़े किले से मिलने जाना है
और यह जाना मुझे भा नहीं रहा
शायद इसलिये कि मैं इन किलों में
बंधी जंजीरों से बतिया चुकी हूँ
या फिर इसलिये कि इनकी प्राचीरें
मुझे सहज होने से रोकती हैं
लेकिन यह बूढ़ा किला है
जिसकी दीवारों पर लगी काई
पत्थरों से कहीं ज्यादा मजबूत है
मुझे झिझकता देख, उन्होंने बताया
कि ये अब किला नहीं हैं
किले से पिंजरे तक होती हुई इसकी
आत्मा बस भग्नावेश संजो रही है
जिन्होंने भी किले देखे हैं, वे जानते हैं कि
इनके भीतर क्या होता है
कुछ पत्थरी प्राचीरें, कुछ तंग खिड़कियाँ
कुछ गलियारे, कुछ गुम्बदे,
दुश्मन को खोजती पत्थरी आँखें
विश्वास से कुछ ज्यादा अविश्वास
फिर रहस्यमयी सुंरग, चतुर
राजनयिक के बचाव के लिये
जिन्होंने भी किलों का इतिहास पढ़ा
वे जानते हैं कि किले
अधिकतर पराजित होते हैं
या तो गिराये जाते हैं, या फिर खुद
ढ़ल जाते हैं, मिट्टी में धीमे धीमे
फिर भी लोग किलों को देखते हैं
मेरे पास अब किला ना देखने की कोई बजह ही नहीं है

*

उनके काले कोटों पर लगे झूठे तमगे
उन्हीं की तरह झमक उठते हैं
जब अनजाने पाहूनो की
महक उन तक पहुँचती है
वे संभाल लेते हैं साज, और सजा
लेते हैं सुर , जहाज के आने से पहले
बिछा देते हैं सुरों का गलियारा
वे थामते हैं अनजाने हाथ, धुनों पर
फिसलने को, खोलते हैं ढपली का पेट
अपने बच्चों का पेट छिपाने को
जमीन से छुलने से पहले
पहुँचा देते हैं गमक सी मींड़,
कदमों की थापों के साथ
जहाज की छत तक,
नाचते हैं, थिरकते हैं, मानों कि
कोई सगा लौट रहा हो
बरसों के प्रवास के बाद,
गले मिलते हैं अनजानों से
कि अपने भी ना मिल पायें
जिस अनजाने पाहुने आते हैं
स्ट्रीट सिंगर के घरों की चिमनी
मछली की गमक को उगलती है
रात बिना साज के ही
गुनगाने लगती हैं

*

पल्लू

बहुत याद आया मुझे आज
मेरी साड़ी का पल्लू
जिसे कभी भी कमर पर खोंच कर
मैं युद्ध की सूचना दे सकती थी
जिसका सिर पर रहना
मेरी तमीज की पताका होती थी
वही पल्लू,
जिसने मुझे कभी घाम से बचाया
कभी मेरे दागों को पौंछा
और कभी मेरे पसीने को सुखाया
यह वह था, जो बच्चों से
संवाद की डोर था,
जिसमें जिन्दगी की चाभी
लटका करती थी
वही पल्लू , जो मेरे कदमों में
उलझा, जरा बहुत रूठा
फिर जा बैठा पुरानी
बन्द रहने वाली अलमारी में
विदेशी तपन की तीखी बरछी से
कौन बचा सकता है मुझे
मेरी देसी साड़ी के पल्लू के सिवाय


टू ओ क्लाक

यूँ तो वे आज भी निकल आती हैं
एन दो बजे, दुपहरी को तेज देती हुई
अपनी पलकों पर आसमान भर
होंठों को सुर्ख सजा
यूँ तो झुर्रियाँ उनके चेहरों पर
तितली सी मण्डरती रहती है
मैंण्डक हथेलियों पर थरथराते रहते हैं
कमर पर झूकी बोगनविला
पावों में जाकर सो जाती है
फिर भी वे निकल आती हैं
ठीक दो बजे, सूरज से आँख मिलाती हूई
सलेटी कालें रंगों में लालिमा भरती हुई
जीती हुई, जीने का इशारा करती हुई
वे दो बजे की देवियाँ
आज भी खड़ी हैं जवानी के उपवन में

सान्त्र्यागो, स्पेन की तीर्थ नगरी शैक्षणिक नगरी भी रही है, जहाँ यूरोप के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय रहे हैं। युद्ध की विभीषिका के बाद जब यह नगरी शोक में डूबी थी, काले और सलेटी रंगों के अलावा कोई रंग दिखाई ही नहीं देता था, उस वक्त दो वृद्ध महिलाए, जिनमें से एक अविवाहित थी, दूसरी विधवा, दिन के ठीक दो बजे, पूरी तरह से सजधज के विश्वविद्यालय से सटे उपवन में टहलने निकल आती थी, लोग उन्हें टू ओ क्लाक के नाम से पुकारते, युवक भद्दे मजाक भी करते, लेकिन वे मानों अपनी उपस्थिति से शोक के रंग को मिटा देना चाहती थी। आज भी उपवन में दोनों की मूर्तियाँ लगी हैं

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अलारिज, स्पेन की यह किलानुमा इमारत, जिसमें खिड़की का नामोनिशान तक नहीं है , एक ऐसी कुख्यात ननरि है , जिसके भीतर हवा तक नहीं पैठ सकती थी, बाहर का कोई भी जन भीतर किसी का चेहरा भी नहीं देख सकता था। और मेरे होस्ट ने मुझे बताया था कि यहां तरह तरह की स्त्रियों को एक तरह से जेल में भेज दिया सा जाता था, यानि कि किसी को अपनी पत्नी से छुटकारा चाहिये, तो वह अपनी पत्नी को यहाँ छोड़कर चला जाता था, क्यों कि उस वक्त उनके धर्म में तलाक नहीं था, किसी को कानो कान भनक तक नहीं पड़ती, कोई स्त्री बाँझ है या पति की निगाह में कुलटा, वह भी यहाँ छोड़े दी जाती हैं। इस किले के भितर ये स्त्रियाँ क्या करती थी, इनके साथ कैसा व्यवहार होता था, किसी को मालूम नहीं, हो सकता है लोकल साहित्य मे कुछ जानकारी हो, जिसे हम नहीं जानते,,,

मुझे इस ननरी को देख कर ही झुरझुरी सी होनी लगी, थी, लगा था, ना जाने कितनी प्रेतात्मायें यहाँ आज भी भटक रही है,,,,
 

Tuesday, November 29, 2016

A Diary from Villa Walbretta Munich- Germany






बस वैसे ही अपने आप को खाली करना पड़ेगा, जैसे कि सड़क के किनारे लगे आलूबुखारे के दरख्त ने अपने को खाली कर दिया। पके फलों को इस तरह से झाड़ दिया कि मानों कोई सम्बन्ध ही ना हो। मोह को झाड़ना बस दरख्तों को आता है, फल पक गये, एक चक्र पूरा हो गया, उन्हे जाना है,

मैं नीचे झुक कर उन फलों को बटोरने का सोचती हूँ, लेकिन अधिकतर फट चके हैं, फलों को क्या फरक पड़ता है कि उन्हे पंछी खाये या वे जमीन के कीड़े,,,, उनकी नियति सिर्फ पकना है, और वे ये काम शुद्दत से करते हैं, यह इंसान ही है जो कच्चे पक्के फलों को समय से पहले पकाना चाहता है, निसन्देह समय से पहले पकने में फलों का दम जरूर घुटता होगा....

हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के चक्र को तोरना नहीं चाहा, फल I खाये तो दरख्त से मांग कर खाये, अपने देह दर्द के उपचार करने को भी छीना झप्पट्टी नहीं की,,,, तभ

यही प्रोजेक्ट लेकर आई हूँ ना मैं,,,,

आज पहले दिन की यात्रा ने ही काफी बीज दिये हैं सोचने को

10.8.2016


कभी कभी इतिहास केवल एक भाषा बोलता दिखाई देता है, एक काला धब्बा इतना बड़ा होता है कि छोटे छोटे सितारे उस धब्बे को मिटाने में समर्थ नहीं दिखाई देते हैं। मुझे बचपन से कई बार पढ़ी गई कहानी याद आती है, उसने कहा था, जब साठ जर्मनों की टुकड़ी लहना सिंह की टुकड़ी पर धावा बोलते हैं,,,,, जो बोले सो निहाल,,,, हम लोग लहना सिंह के साथ बोल उठते थे,,,,, एक एक सरदार दस दस जर्मनों को मार गिराता  और हम उसके साथ उछलते जाते... यह फिल्म नहीं कहानी थी, लेकिन सब कुछ हमारि आँखो के सामने गुजरता जाता। हिटलर और होलोकास्ट की कहानी को तो पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ी, बस सब कुछ कानों से गुजरता रहा...

लेकिन शायद ही किसी ने हिटलर के बाद की जर्मनी की कल्पना की हो, या किसी कहानी कार ने इस कथा को कहा हो,,,, रातों रात हजारों लाखों स्त्रियों का विजेता देशों की सेना द्वारा बलात्कार हुआ, चेक, पोलेण्ड आदि देशों में दिन रात सैंकड़ों जर्मनों को खुले हम फांसी पर चढ़ाया गया, या फिर वे औरते, जिन्होंने खण्डहरों से पत्थर चूना इक्कट्ठा कर फिर से घरोंन्दे बनाये, टमाटर सब्जी उगाई... नवेले अमेरिकनों के घर नौकरानी का काम किया.

यह वक्त था जब अधिकतर पुरुष या तो मारे गये थे, या फिर युद्ध बन्दी थे,,,, स्त्रोयां थी, उनके बच्चे थे, और आने वाला वक्त था

यूरोप और रूस ने जर्मनी को ही नहीं उनके वजूद को रोटी के टुकड़े सा बाँट लिया था, जिसका उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा था, कोई समझ ही नहीं पाता था,,,,,

युद्ध की कथा जोश भरती है तो युद्ध की व्यथा सुबक कर रोती है


जर्मनी तुम्हारे जज्बे को सलाम की तुम इतनी दुर्घटनाओं से गुजर कर निकले,,,,,,

11.8.2016


अभी अभी तो यहीं थी, ठीक मेरी खिड़की
के सामने
वह नदी कहाँ गई??????

नदी का खोना जिन्दगी की पैरहन से गलहार का उतरना है

12.8.2016

Today, We three Charlotte Mumm / Holland, Hisako Inoue / Japan, and me( Rati Saxena / Indian) had an interview by Julia Koormann from the SZ ( Sächsische Zeitung- an important newspaper of Germany.
Julia asked about our project in the villa residency,
Hisako Inoue from Japan had very unusual project, I must simplify it as the art of aroma, she differs the different smells, the smell of people, the smell of trees, fruits and other living and non-living thing, her project is also related to this theme, how the smell activate the mind, how it gives different moods,  it was very interesting to see her expression, though I will learn more after some time. – I was remembering the sea of the sea, in kerala, I could never found that aroma in other seas… the aroma of spices is my long poem, I was connecting with her
Charlotte Mumm was talking about forgetting memories of the metals, mixing the metals so their memories are lost and give them a new atmosphere,,,,,
And my theme work is Poetry therapy, I know that three months are not sufficient time to compete this project n a book form, but this is the best place to work on it.
While working on Atharvaveda’s I always find that seers worried more about nature than suffering of human, as they knew that pain is universal.
I will also go for the traditional wall painting,
Let us hope, we can do some creative
--
12.8.2016





एक राजनेता का पाप सारे देश का साझा पाप होता है , कयों कि उसे जनता चुनती है,,,, कल विला की सहकलाकार ने बातों  के दरम्यान बताया....

यानि कि जनता को खूब सोच समझ कर नेता चुनना चाहिये


13.8.16

कल मै घबरा ही गई
नदी मेरी खिड़की से उतर कर ना जाने कहाँ बिला गई
पहाड़ मुंह ढाँप सो गये
बाद में समझी कि

सूरज की कारस्तानी,
बादलों का बहकना
और ठण्डी हवा का गमकना

आज सूरज है, नदी फिर आकर टंग गई
पहाड़ियों का गल हार पहने
वादियों का सिरहाना लगाये
मैं आश्वस्त हूँ,
#
रोशनी की चमक
मुझे मेरी देह पर उतरती
नदियों से परिचय करवाती हैं

मेरी स्मृतियाँ
नदियों में उतर कर तैरने  लगी हैं
यह मुझ पर निर्भर करता है कि
मैं इन्हें प्यार से देखुं

या फिर घिनाउ
सूरज के देश में रहने वाली
कितने अंधेरे में रहती रही हूँ मैं?????
13. 8.16

गुलाबों की एक भाषा होती है
जिनके हिज्जे खुशबू से बने होते हैं
अभी अभी सुगन्ध की कलाकार
हिसाकों ने बतलाया
रोज आइलैण्ड में घूमते हुए

हमने गुलाबों से बतियाना शुरु कर दिया
अपने हाथों को पीछे बांध
झुक कर खिले गुलाब के करीब जाते
एक गुलाब


हम दोनों एक एक गुलाब के पास जाते,
और झुक कर सूंघ लेते

14.8.16

शंघाई के मन्दिर में, बुद्ध से मिलने से पहले
मिलना पड़ा अनेक देवी देवताओं, द्वारपालों से
हालांकि जलानीभी अगरबत्तियाँ भी
लेकिन हम जा पहुँचे चीनी चाय की दूकान में

जहाँ सुराही सी गर्दन वाली चाय बाला
पिरो रही थी मनका मनका, सुगन्ध का

उबले पानी से चाय की पत्तियों को कली सा खिलाना
प्यालियों को सुगन्धित करना केतली को थाम
पत्तियों  में उड़ेलना, सुगन्ध की इबारत रचने लगा,

सुगन्ध की इस प्रार्थना को गुनते हुए हमने
बुद्ध से मिलना स्थगित कर दिया,,,,,


21.8.2016 Shanghai

कभी बातो बातो में इतिहास की अनजानी परते खुलने लगती है, शंघाई में ब्रिटिश कवि की पत्नी जेरि ने बताया कि विश्व युद्ध के दौरान मर्दो को युद्ध में जाना पड़ा , तो दफ्तर आदि खाली होने लगे। ऐसे में व्यवस्था हिल ही ना जाये, उसके लिये महिलाओं को दफ्तर का काम सम्भालने को बुलाया गया। महिलाओं ने भी नौकरी शिद्दत से निभाई और किसी भी व्यवस्था को बिगड़ने नहीं दिया। युद्ध के बाद जब सैनिक लौटने लगे तो नौकरी की समस्या खड़ी हुई, सैनिकों को नौकरी चाहिये थी, लेकिन अब महिलाओं को दफ्तर के काम करने में मजा आने लगा था। वे नौकरी छोड़ने को तैयार नहीं थी, तब एक सामाजिक आन्दोलन सा छेड़ा गया, पत्नियों को घर में रखो, उन्हे बस बच्चे पालने घर संभालने तक सीमित रखो। यह एक अजीब सा आन्दोलन था जो कानोंकान चल रहा था, लेकिन इसका प्रभाव था,
जेरि बताती है कि कई पुरुषों के पास ठीक ठाक नौकरी भी नहीं थी, लेकिन वे इस सामाजिक ठसक से नहीं दब रहे थे, उनके स्वयं के घर, पिता को साप्ताहिक आधार पर नौकरी मिली थी, और उसकी आमदनी इतनी कम थी कि सप्ताह के आखिरी दिन रात का भोजन बस पतला सूप हुआ करता था। वह कह रही थी कि उस रात हम सब मनाया करते कि अगले दिन पिता की नौकरी फिर बहाल हो जाये।

लेकिन इसका प्रभाव यह भी रहा कि माँ ने अपनी दोनों बेटियों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ने में जोर डाला, जिससे वे अपने पाँवों पर खड़ी हो सकें,,,

मूझे ना जाने क्यों अपने राज नेताओं की याद आने लगी खास तौर से राबड़ी देवी की,,,,,

21.8.2016 Shanghai
कुछ बाते अचानक होती जाती है, कल दुपहर को स्पेन के एक खूबसूरत  द्वीप Majorca के वासी, पेशे से अध्यापक, शौक से अभिनेता Eduard Moya Anton से बात हो रही थी, शाम को विला में सहकलाकारों के लिये एक छोटा सा कविता पाठ रखने का विचार था, क्यों कि मोया की रेसीडेन्सी का आखिरी दिन था, मोया को मैने अपनी नई अंग्रेजी में अनुदित किताब दी थी, वे उनमें से कुछ कविताएं पढ़ने वाले थे, मैं मूल कविताए हिन्दी में। अचानक मैंने उन्हे अपनी पुरानी किताब दी, जिसमें पहली कविता थी, एक खिड़की और आठ सलाखें, मोया ने पढ़ीं और उसे महसूस किया, उसके भीतर घुटते दम को महसूस किया, मैने मोया को बताया कि यह कविता सालो पहले अजेय केलंग ने पसन्द की, उसके बाद किसी ने पढ़ी, याद नहीं,,,,

लेकिन वक्त आपको गलत बताता है,  कविता पाठ के बाद जब मैंने अपना मोबाइल देखा तो इसी कविता का मराठी में अनुवाद मिला, मैं चकित थी, आज सुबह पृथ्वीराज नें चैट पर बताया कि सविता जी नें इस
कविता का अनुवाद मराठी में किया है, मुझे आश्चर्य था कि यह कविता सविता जी को कैसे मिली, क्यों कि इस पर हिन्दी जगत में अजेय के अलावा किसी ने बात ही नहीं की....तब पृथ्वीराज ने बताया कि सविता जी के बेटे की तबियत खराब थी, और बेटे के साथ अस्पताल में रहते हुए उन्होंने इस कविता का अनुवाद किया,,,, सही ही तो है, ये कविता एक तरह की घटुन की अभिव्यक्ति बेहद सीधी इमेजेस में करती है। लेकिन मुझे थोड़ी राहत इस बात की थी, कविता ने सविता के मानसिक व्यथा को एक अभिव्यक्ति थी, निसन्देह मराठी में यह कविता सविता की ज्यादा, मेरी कम है,,, और मेरा पोइट्री थेरोपी पर विश्वास भी बढ़ा....
28.8.2016


कल शाम शुएब मिला, मैं सुपर मार्केट में थी, लिखने के लिये कुछ कागज खरीदने के लिये। छोटा मोटा सामान मेरे हाथ में था, अचानक एक बेहद बूढ़ी महिला मेरे पास आकर जरमनी में कुछ कहने लगी, वे बड़ी परेशान सी लग रही थीं, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, और वह मेरा बैग पकड़ कर कुछ कहे जा रही थी। मैंने पास खड़े दूसरे व्यक्ति से पूछा कि क्या समस्या है तो वे कुछ नहीं बता पाये, क्यों कि जर्मनी में लोग सिर्फ अपनी भाषा बोलते हैं, अंग्रेजी जानने वाले बहुत कम होते हैं। तभी यह युवक सामने आया और अंगरेजी में बताने लगा कि ये महिला अपनी बेटी को खोज रही है, जो शायद आपकी उम्र की होगी, वे बहुत परेशान हैं। वृद्धावस्था की असहायता देख मेरा मन दुखी सा था। मैंने इस युवक को देखा, वह जरमन तो नहीं लग रहा था, हालांकि अफगानिस्तान का होने के कारण रंग बेहद साफ था। मैने पूछा कि क्या यही के हो, या बाहर से आये हो, तो उसने जवाब दिया कि अफगानिस्तान से आया हूँ। फिर जब उसे जाना कि मैं भारत से हूँ तो कहने लगा कि फिर हिन्दी उर्दू में बात करें ना, मुझे उर्दू आती है।

मेरी रुचि उसकी कहानी जानने में थी, उसे साथ चलने को कहा, रास्ते में उसने बताया कि वह अफगानिस्तान से है, बचपन से अब्बा ने पाकिस्तान भेज दिया पढ़ने के लिये, जिससे वह दंगाइयों से प्रभावित ना हो। वह बता रहा था कि दूसरों ने मुझ पर दवाब डाला कि क्या करोगे पढ़ लिख कर, हमारे साथ आओ, लेकिन मैंने कहा कि मैं किसी को मार नहीं सकता, मुझे किताबों की दुनिया ही अच्छी लगती है़ । उसका एक भाई भी मार दिया गया था, इसलिये अब्बा उस के लिये डर रहे थे।

जब पाकिस्तान में भी रहना मुश्किल हो गया तो अब्बा ने सलाह दी कि बाहर किसी मुल्क मे चले जाओ, वह किसी पहले दुबाई आया, फिर वहाँ से इरान पहुँचा।

जब सीरिया के शरणार्थियों के लिये जर्मनी ने दरवाजे खोले तो वह एक जत्थे के साथ पैदल चल कर जर्मनी पहुँचा, जहाँ उसे सरकारी शरणार्थी का दर्जा मिल गया। उसे दूसरे शरणार्थियों के साथ रहने की जगह और थोड़ा पैसा भी मिलना शुरु हो गया।

अब वह पहले अच्छी तरह से जरमन भाषा पढ़ रहा है, जिससे आगे पढ़ाई करे, उसे डाक्टर बनना है जिसकी पढ़ाई महंगी है, तो वह पहले नर्सिंग करना चाहता है, और जब नर्सिंग से पैसा मिलेगा तो वह घर भी भेज सकेगा और डाक्टरी भी पढ़ेगा। वह जर्मनियों के व्यवहार की बहुत तारीफ कर रहा था, कि वे लोग बहुत मददगार होते है।

मैं बीस साल के उस युवक के हौसले देख कर खुश थी, शुएब कहने लगा कि मुझे आप अपना बच्चा समझे, और जब भी जरुरत हो, मुझे बतायें, भारत के प्रति हम अफगानियों का मुहब्बत का रिश्ता है, हम ऐसे नहीं हैं जैसा कि हमे बताया जाता है,,,,,,

मैंने पूछा ... तुमने काबुलीवाला कहानी पढ़ी है? नहीं तो अब पढ़ लेना,,,,, अपने हौसले बुलन्द रखों और आगे बढ़ो,,,
24.8.2016
……


जब भी सर्द हवा
मेरे कमरे को कुछ और गीला कर देती है

मैं भाग कर शहर के पास पहुँच जाती हूँ

जैसे कि एक बच्चा जाता है
चिड़ियाघर में बन्द बाघ को देखने

जैसे कि एक कौआ पहुँच जाता है
बीच सड़क पर दोने में चौंच मारने

जैसे कि शोर पहुँच जाता है
सड़क को छोड़ पहाड़ी पर लटके बादल पर

जैसे कि कलाप्रेमी छोड़ प्रेम की खबर
चबाने लगता है, लाश कुछ कश के साथ


बहुत आसान होता है
शहर को अलग थलग कर के देखना

बहुत कठिन होगा है
शहर से पूरी तरह अलग होना

22.8.2016


कला की परिभाषा क्या हो सकती है, कला कितनी जमीन से जुड़ी हो, कितनी कल्पना से, ये मुद्दा विचारणीय रहा है।
23.8.2016


सपने तो रोजाना दिखते हैं, ज्यादातर बकवास ही होते हैं, लेकिन कल का सपना काफी लम्बा याद रहा, वे सारे चेहरे दिखे, जिन्होंने मेरे ख्याल से धोखा दिया था, लेकिन मेरे सपने में वे मुझे धोखेबाज बता रहे थे,
वे मेरा इस तरह से तिरस्कार करते रहे, लेकिन मैं सिर्फ समझने मे लगी रही कि धोखा , किसने किसको दिया,
लेकिन मजे की बात कि वे वे सब करते रहे, पूरी तरह से मुझे तिरस्कृत करते हुए , जो मेरे हिस्से का काम था, मैं चाह कर भी सिर्फ गलतियों का प्रेक्षक बनी रहीं,

जगने के बाद से यही सोच रही हूँ कि धोखे की परिभाषा अलग अलग अर्थों में अलग होती है....
2.9.2016
चाभी

घर से भागते वक्त उसने
घर की चाभी अपनी जेब में रख ली
बिना यह देखे कि दरवाजा बन्द है या नहीं
बन्द होता तो भी तीन तरफ ढही दीवारें
घर को क्या पनाह देती

फिर भी उसे सकून था कि
एक चाभी उसकी जेब में है
जो उसके अपने घर की है

जो उसे किसी भी अजनबी जगह पर
यह अहसास कराती रहेगी कि
उसका भी अपना घर है
जो उसकी भूख को
रोटी की महक से रुबरु कर सकेगी
आड़े वक्त में जब
उसकी भूख की लपटें
महकों से कहीं ऊँची उठ जायेंगी

उसने चाभी नहीं एक दुनिया
रख ली अपने साथ

--

जब से मैंने लिखना शुरु किया
मेरे अक्षरों ने अर्थों से नाता तोड़ लिया
ध्वनियां भी रूठ, दूर दूर चलने लगीं
कबूतर के पंखों की फड़फड़ाहट के आरोह अवरोह रचना चाहती
मेरे अक्षर "क" की कड़कड़ाहट के साथ, "फ" की फटकार के साथ बन्द हो जाते

नीलेपन की परते उतारने में मेरे शब्द लड़खड़ा कर रुक जाते हैं
माटी का मीठापन "म" से "अहम" में बदल जाता है

मेरे भाव बाहर की ओर देखना भूल,
भीतरी कूप में डुबक डुबक करते रहते हैं,
मैं झील के रंग पकड़ना चाहती , मेरे शब्द
मरी मछली से सतह पर उतराने लगते,

मैं पीड़ा की गहराई में उतरना
सूखी जमीन की दरार में पैठना
फक्कड़पने की हंसी को पकड़ना
चाहती, लेकिन अक्सर मेरे शब्द
मुझे धोखा दे देते, मैं वही लिख पाती
जो मेरे अक्षर मुझसे लिखवाते हैं

जब से मैंने लिखना शुरु किया
कोष्ठक मेरा स्थाई आवास बन गया.....
13.sep.16

The main motto of a poet is not only writing a book but also providing pious food to every hungry person. This was the main lesson that I learnt there and I bow my head. I asked them only one question whether ladies too write poetry ? And the reply was in affirmative. After completing their house hold responsibilities they come here in the evening .
No fear was there , only the feeling of love in their eyes, I noticed. I looked at them and then thought about the farmers of our country who are committing suicide, sunk into deep grief .

thanks to Eduard Moya to arranging this small readings, in which he gave voice in English , and Hisako Inoue cooked wonderful Japani food, Charlotte Mumm was presant as dedicated audiance, I read in hindi, it was small but beautiful , I must thanks to Eduard;ds' wife, beautiful girl and healpng hand,:

कुछ बाते अचानक होती जाती है, कल दुपहर को स्पेन के एक खूबसूरत द्वीप Majorca के वासी, पेशे से अध्यापक, शौक से अभिनेता Eduard Moya Anton से बात हो रही थी, शाम को विला में सहकलाकारों के लिये एक छोटा सा कविता पाठ रखने का विचार था, क्यों कि मोया की रेसीडेन्सी का आखिरी दिन था, मोया को मैने अपनी नई अंग्रेजी में अनुदित किताब दी थी, वे उनमें से कुछ कविताएं पढ़ने वाले थे, मैं मूल कविताए हिन्दी में। अचानक मैंने उन्हे अपनी पुरानी किताब दी, जिसमें पहली कविता थी, एक खिड़की और आठ सलाखें, मोया ने पढ़ीं और उसे महसूस किया, उसके भीतर घुटते दम को महसूस किया, मैने मोया को बताया कि यह कविता सालो पहले अजेय केलंग
Ajay Kumar ने पसन्द की, उसके बाद किसी ने पढ़ी, याद नहीं,,,,

लेकिन वक्त आपको गलत बताता है, कविता पाठ के बाद जब मैंने अपना मोबाइल देखा तो इसी कविता का मराठी में अनुवाद मिला, मैं चकित थी, आज सुबह पृथ्वीराज नें चैट पर बताया कि सविता जी नें इस
कविता का अनुवाद मराठी में किया है, मुझे आश्चर्य था कि यह कविता सविता जी को कैसे मिली, क्यों कि इस पर हिन्दी जगत में अजेय के अलावा किसी ने बात ही नहीं की....तब पृथ्वीराज ने बताया कि सविता जी के बेटे की तबियत खराब थी, और बेटे के साथ अस्पताल में रहते हुए उन्होंने इस कविता का अनुवाद किया,,,, सही ही तो है, ये कविता एक तरह की घटुन की अभिव्यक्ति बेहद सीधी इमेजेस में करती है। लेकिन मुझे थोड़ी राहत इस बात की थी, कविता ने सविता के मानसिक व्यथा को एक अभिव्यक्ति थी, निसन्देह मराठी में यह कविता सविता की ज्यादा, मेरी कम है,,, और मेरा पोइट्री थेरोपी पर विश्वास भी बढ़ा....
……

. Yesterdays jour fixe was wonderful, first of all I appreciate the energy of Karin Sommer , our leader,  she prepare the food in very less time, and very perfectly. She is a wonderful officer and very active person.
I was very much impressed the guests our audience who took part in it. They all had wonderful understanding of the art and literature.
All residents of the villa are also wonderful in their own field , Cadu de Andrade  is a singer and writes own songs, Scott Morrison is also Musician and his project is also interesting, as he is going to record the sounds ,and he will make symphony. I wish, I can get the symphony made by him, I love the work of  charlotte Munn , she mix the mates and make sculpture , and her imagination is wonderful, her imagination is very different than us , who use words for all expressions. The quality of her work is also wonderful. How she uses different heights and shapes. Hisako Inoue’s project is provokes every one as smell has a very interesting memory in every persons life. We all enjoyed those memories so much,
8.9.2016
My project is related to the  power of poetic imagination or the power of the words in  bodily treatment was known to the man from very early time, as we find such oral practices in Native American , Native African culture also. We find shamana practice also.
In modern time, when treatment became just mechanical, the human touch is disappearing, we find more difficult to handle the health problems. In modern medicine, we depend on the Machines from recognize the symptoms of the disease or diagnosis to a part of treatment. Medical as a human touch comes at very limited times.
I have so much to study and found out in this way of life
A wonderful discussion, wonderful evening

Thanks Karin and your team





यह अचानक तो नहीं होता, हाँ महसूस अचानक होने लगता है कि हम ना जाने कर्ता से दृष्टा बनते जा रहे हैं, हम धीरे धीरे अपनी जगह से सरकते जा रहे हैं, युवा खिलखिलाहटे पानी सी बहती हैं, हम उनमें अपना भूत देखने हैं , भीतर से कोई जरूर कहता है कि क्या हम इस झरने में भीग नहीं सकते? लेकन हकीकते जानती हैं, कि हझरना ताजगी चाहता है, तो फिर बचता यही है कि दो कदम पीछे सरक कर देखते रहें, संभवतया कुछ फुहारें हम पर भी पड़ जायें....
धीरे धीरे हम सूखते जाते हैं, काठ से कठोर बनते जाते हैं,
और अन्त में चरमरा कर खण्ड खण्ड बिखरने के लिए अपने को तैयार कर लेते हैं,,,


कभी कभी म्यूजियम देखने में कोफ्त होने लगती है, यदि यह किसी राजघराने से सम्बन्धित म्यूजिम है, जैसे कि अकसर हुआ करता है, हम बस यही देखते रहते है कि राजपरिवार का इतिहास क्या है, उनके खाने का कमरा कैसा था, उनका बिस्तरा कैसा था आदि आदि.
और कल म्यूनिख का नेशनल म्यूजियम देखा तो कमरे दर कमरे मात्र एक जगत कर्ता के नाम पर बनाई गई कलाकृतियों से भरे पड़े थे, समस्या यह होती है कि महानता के साथ प्रयोग नहीं किए जा सकते, और प्रयोगों के बिना विविधता भी नहीं होती, तो कलाकार मन को सन्तुष्टि कहाँ से मिलेगी?

शायद यह सोचा ही नहीं गया कि जब है अजायबघर या म्यूजियम कीर्तिगान की जगहें नहीं, बल्कि उस डौर में गुजरने की चाह भी हो सकती है, कि कैसे थे हमारे पूर्वज थे, कैसे वे खेती करते थे, कैसे रहते थे, क्या पहनते थे, क्या खाते थे,

पूरा नेशनल म्यूजियम से गुजरते गुजरते एक तरह की जड़ता ने आ घेरा, जिसे दूर करने के लिये पतझड़ी बरसात में भी इंगलिश गार्डन से निकलना अच्छा लगा।

नेशनल म्यूजियम ,,,
२.१०.२०१६



उनसे मुलाकात भी एक अजब इत्तेफाक था, मैंने बस स्टेंड पर स्ट्रीट फेस्टीवल का नोटिस देखा, जो था तो जर्मन में, लेकिन कुछ अलग सा लगा, तो मैंने एक मैंने इन्टरनेट से  जानने का विचार किया, और पता चला कि म्यूनिख में एक खास तरह का फेस्टीवल होता है, जिसे स्ट्रीट फेस्टीवल होता है काफी कुछ हमारे पुराने जमाने के मेले ठेले सा।  Odeonplatza  के करीब सड़क को रोक कर Ludwig I !- street life festival मनाया जा रहा था। वहाँ तरह तरह के खेल तमाशे , नाच गाना, खाना पीना होता है। मैं पता लगा कर वहाँ पहुँच गई , ओर सच कहूँ मजा भी, शहर और गाँव दोनों मिल गया था। कहीं पर ग्रामीण वातावरण तो कहीं पर ठेठ पश्चिमी। मैं घूम रही थी, कि देखा कि एक टैण्ट में एक वृद्ध महिला मिट्टी गूंध रही थीं। मैं रुक कर देखने लगी तो उन्होंने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा और कहने लगीं कि बच्चों ने मिट्टी से खेला तो यह जरा कड़ी हो गई, ठीक कर रही हूँ। फिर मुस्कुरा कर पूछने लगीं, तुम कुछ बनाना चाहोगी क्या?
मैं उनकी मुस्कान से इतनी आकर्षित हुई कि जाकर कर मेज पर बैठ गई़ हालांकि मुझे पाटरी का काम कुछ नहीं आता। मिट्टी बेहद चिकनी , खूबसूरत थी। वे कहने लगी कि ये मेरे बगीचे की है, जिस तरह जापानी लोग मिट्टी को सालों सालों तैयार करते हैं  वैसे ही मेरे बगीचे की मिट्टी सदियों पुरानी लगती है,

मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या बनाऊ, मुझे याद आया कि मेरे बचपन में शादी ब्याह में आटे के शिव पार्वती और गणेश बनाये जाते हैं, मुझे उस काम में बहुत मजा आता था, तो मैंने गणेश बनाना शुरु कर दिया, उसी अनघड़ तरीके से जिस तरीके से आटे के बनाये जाते थे। मिट्टी इतनी मुलायम थी कि मुझे लगा कि मेरे मन की सारी मलिनता मिट्टी की तरह मृदुल हो गई।

उन महिला का नाम Hennette Zilling था। उन्होंने मुझे अपना पता दिया और कहा कि महिने के अन्त में मेरे घर मे गाने का कार्यक्रम होने वाला है, चाहो तो आ सकती हो। मैंने पता ले लिया, लेकिन मैं जानती थी कि मुझे रास्ता समझ नहीं आयेगा, क्यों कि बस ट्राम आदि सभी जगह मात्र जर्मन में लिखा जाता है़।

खैर फिर उनका कलात्मकता से बना इन्विटीशन मिला तो सोचा कि कोशिश करने में क्या बुराई है, लेकिन पता चला कि कलाकार की मां की तबियत खराब हो गई तो कार्यक्रम स्थगित हो गया़ लेकिन हेनेत ने मुझे मेल भेजा कि यदि तुम चाहो तो हम नेशनल थियेटर के करीब मिल सकते हैं , तुम १९ नम्बर की ट्राम लेकिन आ जाओ। यह आसान था। जब मेरी ट्राम थियेटर बस स्टाप पर पहुंची तो वे सामने खड़ी थी़ । आज मैंने ध्यान दिया, वे सतर्क और सीधी खड़ी थी, चेहरे पर भर झुर्रियाँ लेकिन बेहद खूबसूरत मुस्कान, लेकिन चलने में बच्चो सी चपलता। खूबसूरत गोरा रंग, नीली आँखें, कुछ छोटा कद, पतली छरहरी। बेहद जर्मन व्यक्तित्व। उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या देखना चाहती हो? नया म्यूनिख या पुराना? मैंने कहा कि मुझे पुराने में ज्यादा रुचि है। हम शहर के दिल में ही थे, और हर सड़क और हर गली कुछ कहानी कहती है। यह इलाका Graggenau ,कहलाता है़ वे मुझे गलियों में ले गई और हर गली और सड़क से जुड़ी कहानिया बताने लगीं, जैसे कि यह इमारत पहली  रेजिडेन्सी  थी,इस इमारत का इतना हिस्सा टूटा लेकिन इतना नहीं, वे बताने लगी कि पुरानी इमारतों मे कुछ नई खिड़कियाँ है कुछ पुरानी,,, और वे उनका अन्तर बताने लगी। वे मुझे बहुत पुरानी बेकरी में ले गई, जहाँ रोटी की आकृति की सूखी रोटिया सी थी, उन्होंने बताया कि ये पारम्परिक ब्रेड हैं, जिसमें ईस्ट नहीं होता है। उन्होंने तरह तरह की रोटियां खरीदीं।

मैं उनकी जिन्दगी के माध्यम से इतिहास को भी पढ़ना चाहती थी, मैंने पूछा कि आप कब से म्यूनिख में हैं, वे बताने लगी कि मैं दस साल की उम्र में म्यूनिख आ गई थी, उन्होंने कहा कि उनका जन्म कस्बें मे हुआ जिसका नाम था,  Bayreuth  , यह इलाका बावेरियन राज्या के उत्तर में था  king Friedrich II ofPreussen का एक खूबसूरत  Residenz है, और कस्बे के बीचोंबीच एक  औपरा हाउस भी था। एक बगीचा था करीब सौ साल पुराना, जिसका नाम था Eremitage.  जिसे  King Ludwig II of Bavaria ने बनवाया था।
 उनके पिता डाक्टर थे। युद्ध के बाद उनके पिता की अचानक मृत्यु हो गई तो मां ने म्यूनिख आने का सोचा, क्यों कि उनके माता पिता म्यूनिख में थे़। वे १९५३ में म्यूनिख आ गई थी, उस वक्त उनकी उम्र दस साल की थी, और जब वे दो साल की थी, पिता की मृत्यु हो गई थी। निसन्देह उनकी माँ ने काफी वक्त तक सम्भलने की कोशिश की होगी। मैं युद्ध की बात करने में हिचकिचा रही थी,क्यों कि जर्मन हिटलर के बारे में बात करना पसन्द नहीं करते। फिर भी मैंने पूछा कि क्या आपके मन में युद्ध की कुछ यादें हैं, तो वे बताने लगी कि मुझे बम गिरने की याद है, जब बम गिरते थे, तब हम सुरंगों में चले जाते थे, लेकिन तब हम एक शब्द भी नहीं बोलते थे, क्यों कि डर था कि कहीं कोई सुन तो नहीं रहा है।
उनके इस वाक्य ने ही मुझे आम जनता में तानाशह के भय की जानकारी दे दी।

बाद में हेनेत की माँ म्यूनिख में आकर स्कूल में अग्रेजी पढ़ाने लगी ।
मैंने पूछा कि काफी वक्त तक जर्मनी विभिन्न देशों के अधीन रहा, वह वक्त कैसा था, तो वे कहने लगी कि यह भावना ही कि कोई आप पर नजर रखे हैं, आसान नहीं होती है। बावेरियन इलाके में अमेरिकन सरकार का हस्तक्षेप था, तो हमें वह सब करना था, जो वे चाहते थे।
मैंने पूछा कि कैसे जर्मनों ने यह चमत्कार कर लिया कि वे यूरोप की सबसे बेहतर अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया। वे कहने लगी, ये रास्ता बहुत लम्बा था, बहुत धीरे धीरे हुआ , लेकिन बड़ी मेहनत से हुआ़ हम सभी इसी में जुड़े।

हेनेत बड़ी खुबसूरत रही होंगी, तो मैंने पूछा कि क्या आपकी शादी हुई, वे कहने लगी कि नहीं, पता नहीं क्यों,पर शादी हुई नहीं। मैंने पढ़ा था कि युद्ध का  लोगों पर बहुत तरह से प्रभाव पड़ा़ ज्यादातर पुरुष मारे गए थे, अनेक बच्चे लावारिश थे, अनेक महिलाओं के रेप चाइल्ड थे। मैंने देखा  कि अनेक वृद्ध महिलाओं के पति अन्य  यूरोपियन देश के हैं।

हेनेत के कोई भाई बहन भी नहीं थे, तो निसन्देह माँ के बाद वे नितान्त अकेली हो गई होंगी, हालांकि उनके पास अपने दादा दादी की अच्छी स्मृतियाँ रहीं है।

हेनेत के सा्थ समस्या यह थी कि वे बीच बीच में जर्मन में बोलने लगती थीं, लेकिन मैं उन्हें बिल्कुल नहीं टोक रही थी।

वे नेशनल थियेटर, म्यूजियम आदि के बारे में जानकारी देती रही थी कि यहां पुराने जमाने में कलाकारों को रखा जाता था, या यहाँ मिनिस्टर रहते थे, आदि आदि, मेरे लिये इमारतों में भेद करना जरा कठिन ही था, इतनी इमारते, इतनी मूर्तियां और चौराहे कि सब कुछ गड्मड्ड हो रहा था।

अन्त में उन्होंने पूछा कि क्या मैं और घूमना चाहती हूँ या उनके घर चलना, मैंने कहा कि घर चलना चाहती हूं।

हेनेत का घर कलाकार का घर था, खूबसूरत सा घर और बेहद छोटा सा बगीचा। यह शहर के बीच ही था, और महत्वपूर्ण इलाका लग रहा था। हेनेत ने बताया कि उन्होंने यह मकान बेच दिया है, बस इतना है कि उनकी मृत्यु के बाद ही खरीददार इस पर कब्जा कर सकता है़ हेनेत के चेहरे में ना मौत का डर था, ना भविष्य का। घर में बेहद खूबसूरत कलाकृतियां रखी थी, जो निसन्देह जगह जगह से खरीदी गई थीं, उन्होंने बताया कि उन्हे कुछ सामसग्री दादा दादी से मिलीं, कुछ पिता की एक मात्र बहन से, घर की गैलरी में सून्दर मूर्तियाँ थीं   जिसे उनकी आण्टी ने खरीदा था़ पूरा घर बेहद कलात्मकता से सजाया गया था। जगह जगह पर छोटी छोटी चीजे, कहीं कहीं पर जानी बूझी बेतरतीबी, हम लोगों ने साथ चाय पी, और खाखरे जैसी रोटी भी खाई, फिर उन्होंने अपने बगीचे मे उगे सेव की पाई निकाली, जो काफी स्वादिष्ट बनीं थी।

वे अपने खानपान के बारे में बताने लगी कि किस तरह वे एक बारतीय डाक्टर के निर्देशों का अनुपालन कर रही हैं, उबली मैथी, काली मिर्च अदरक आदी के सा् अश्वगंधा का सेवन,

मैंने पूछा नहीं कि उनका डाक्टर एलोपैथिक है या आयुर्वेदिक, क्यों कि भारत में तो इस तरह के नुस्खे बहुत पापुलर हो रहे हैं, वे मुझ से अश्वगंधा के बारे में पूछने लगी तो मैंने कहा कि जहाँ तक मुझे ज्ञात है यह हिमालय में शिलाओं पर चिपका एक द्रव हैं, लेकिन जिस तरह से इसकी बिक्री हो रही है, समझ नहीं आता कि ये प्राकृतिक तत्व टनों की मात्रा में कैसे प्राप्त हो सकता है, क्यों कि यह कोई फसल तो है नहीं कि उगाया जा सके।

हाँ मैथी दाना, काली मिर्च, सौंफ आदि के टोटके बहुत पुराने हैं, उन पर सन्देह नहीं कर सकते।

अन्त में वे अपने स्टूडियों ले गई, जो कि अण्डर ग्राउण्ड हैं, मुझे आश्चर्य हुआ कि ७६ की उम्र में वे इतने नवीन प्रयोग एक सा् कैसे कर सकती है एक कागज का लैम्पशेड जैसा तैयार हो रहा था, जो उनके करीबियों के पत्रों से बना था। कुछ टाइपराइटर से टाइप किए गये थे, तो कुछ हाथ से लिखे, सबकों जोड़ कर वे एक मेमन्टो तैयार कर रही थीं, दूसरी ओर तारो की एक टोकरी अधबुनी रखी थी, वे शिकायती लहजे में कह रही थी मुझे इस गर्मी में पुरी कर लेना था, क्यो कि सर्दियंो में उंगलिया एंठ जायेगी कि बुनाई नहीं हो पायेगी, लेकिन यह बी अधूरी रह गई़ इस तरह उनके कई प्रोजेक्ट अधूरे पड़े थे, कुछ मिट्टी के बर्तन ज्यादा जल गये थे, यानी उम्र ने कला पर प्रभाव डालना शुरु कर दिया था, लेकिन वे भविष्य के बारे में जरा भी चिन्तित नहीं थीं.

मुझे याद आया कि मेरे अपने देश में मुझे लेकर सभी कहते हैं, अकेले क्यों रहती हो, अकेले क्यों जाती आती हो, अब क्या करोगी आदि, आदि,, हेनेत के आगे तो कोई भी सगा नहीं है, फिर भी वे अपने कर्म में जुटी हैं, बिना यह चिन्ता कए कि आगे क्या होगा।

जब हम लौटने को हुए तो कहने लगी कि रति, मैं बताउ कि मैं साइकिल से आई थी नेशनल थियेटर तक, और साइकिल वहीं रखी है, तो मैं तुम्हे वहा छोड़ दूंगी और साइकिल लेकर आ जाऊंगी, मैंने जरमन महिलाओं को साइकिल चलाते देखा है, लेकिन कोई ७६ की उम्र में साइकिल चला॓एगा, इसकी कल्पना तक नहीं की,

मैं लौट आई, लेकिन मैं नहीं सोच सकती कि इससे ज्यादा शान्त और सुन्दर शाम कुछ हो सकती है,,,,

मुझे समझ में आने लगा कि कैसे इस देश ने अपने को सम्भाला, और कैसे ये आगे बढ़ा।

29.10.2016



सबसे पहले नाम बताऊं, या पहले उसका हुलिया? वह मेरे बराबर की सीट में बैठी थी, हालांकि अलग पंक्ति में थी, म्यूनिख में देखी गई उस उम्र की लड़कियों से कहीं अलग, फैशन से कहीं दूर, साधारण सा ट्रेक पेन्ट, और एक साधारण सी टी शर्ट। सादा सा चेहरा , बिखरे से बाल, लेकिन गहरी नीली आँखें, खासा जर्मन व्यक्तित्व। मेरी निगाह बीच बीच में उस पर जाती थी, मैंने देखा कि उसने एक बार भी मोबाइल नहीं पकड़ा, ना ही लेपटाप निकाला, स्क्रीन को खोला जरूर, लेकिन बस कार्टून लगा कर छोड़ दिया, बीच में उसने नन्ही सी डायरी निकाली जिस में कुछ पन्नों मे कुछ लिखा हुआ था, दूर से मुझे कविता का भी भ्रम हुआ।  फिर कुछ ऐसा हुआ कि मेरा जमाटर जूस गिर गया, तो वह नेपकिन लेकर जमीन पौँचने लगी, मैंने  उसकी तरफ मुस्कुरा कर देखा, फिर बातचीत का सिलसिला शुरु किया़ । मैंने पूछा कि क्या वह कविता लिखती है, उसने कहा, नहीं कविता तो नहीं, लेकिन डायरी जरूर लिखती हूँ, और ब्लाग भी, मेरी दोस्त मेरा लिखा पढ़ती है। फिर वह बताने लगी कि अभी उसने स्कूल पूरी की है, यूरोप में स्कूल लगभग भारतीय बी ए जितना होता है़। लेकिन आगे क्या करना है यह सोचने के लिए वह वक्त चाहती थी, तो वह विश्व भ्रमण के लिए निकली है।

अट्ठारह साल की लड़की अकेली विश्व भ्रमण के लिए निकली है, यह बात मेरे लिए नई तो नहीं, क्यों कि मैं पहले भी कुछ लड़कियों से मिल चुकी हूँ, लेकि आश्चर्य यह था कि वह अपने साथ पैसा भी नहीं लिए हुए है, उसका प्लान है कि वह जहाँ जाएगी, वहाँ पेट भरने और रात को सोने की जगह पाने भर को कुछ ना कुछ काम करेगी,  एक साल घूमने के बाद वह यह निश्चित करेगी कि वह आगे क्या करना चाहेगी।

उसके भ्रमण की सीमा में, श्री लंका, आस्ट्रेलिया, न्यूजिलेण्ड, ब्राजील, पेरु, पनामा, कनाडा और आइसलैण्ड होते हुए एक साल में अपने देश लौटेगी।

मैंने पूछा कि उसकी माँ की क्या प्रतिक्रिया थी, तो कहने लगी कि पिता तो खुश थे कि मैं कठिन निर्णय ले रही हूँ, लेकिन माँ जरा चिंन्तित थीं, लेकिन उन्होंने यहीं कहा कि ध्यान से रहना

मैंने कहा कि जूलिया, मै भी बस एक सलाह दूंगी कि ध्यान से रहना, लेकिन तुम भारत आये बिना विश्व भ्रमण करोंगी, अच्छा नहीं लग रहा है, तो कहने लगी कि भारत बहुत बड़ा जो है,

मुझे भारत ना आने का कारण मालूम ही था, क्यों कि जर्मनी में मुझ से अनेक बार पूछा गया था कि भारत में इतने रेप क्यों होते हैं, और मुझे उन्हें समझाने में वक्त लगता कि रेप भारति की संस्कृति नहीं, वैश्विक संस्कृति का ही एक भाग है, और उसके पीछे अनेक तरह की मानसिकताएं काम करती हैं, लेकिन रेप की घटनाए ज्यादा होते हुए भी स्थिति  ऐसी नहीं कि आप भारत में रह ही नहीं सकते।

खैर हम बात जूलिया की कर रहे हैं, ना जाने कितनी लड़कियाँ हमारे घरों से भि निकलना चाहती हैं, लेकिन कहाँ निकल पाती, विश्व भ्रमण का सपना तो किशोर युवकों का भी पूरा हो पाता है,
मैं वह यह चाह रही हूँ कि जूलिया की यात्रा सफल हो, और वह एक सही रास्ते में कदम रख सके

आमीन।
2.11.2016