लण्डन के पोइट्री
सोसाइटी के पोइट्री केफे वैल्श की शीर्ष कवि और यूके की फैलो कवि मैना एलफिन के साथ
कविता पाठ करने के अवसर को मैं महत्वपूर्ण मानती हूँ, वह इसलिये भी कि पोइट्री कैफे
लण्डन की पोइट्री सोसाइटी में महत्वपूर्ण स्थान रखता है़। कार्यक्रम 19 जून शुक्रवार
की शाम को था़, यूरोपीय जीवन शैली में शुक्रवार की शाम को लोगो का जुटना कठिन होता
है , और जब कार्यक्रम लण्डन के गहमा गहमी भरी स्ट्रीट में हो रहा हो , ट्रैफिक का कहर
बरस रहा हो तो दस बीस लोगों का जुटना भी बड़ी बात मानी जा सकती है। ट्रैफिक के कारण
में वक्त से 15 मिनिट बाद ही पहुँच सकी, मैना वैल्श से केवल इस कार्यक्रम में भाग लेने
पहुँची हुई थी। संस्था की प्रमुख ज्यूडिथ गोष्ठी के बारे में अपनी रूप रेखा रख रही
थीं। मुझे थोड़ा आश्चर्य था कि हमारा कार्यक्रम दो घण्टे का था, केवल दो कवियों को दो
घण्टे देना कुछ ज्यादा ही था। ज्यूडिथ बेहद समझदार आयोजक हैं, उन्होंने जो रूपरेखा
बताई उसके अनुसार पहले मैना अपनी तीन कविता को वैल्श और अ्ग्रेजी में पढ़ेंगी, मैं उन्ही
कविताओं को हिन्दी में पढ़ूंगी, , इसके बाद मैं अपनी तीन कविताओं को हिन्दी में पढ़ूंगी,
और मैंना उन्हें अंग्रेजी में पढ़ेंगी। इसके बाद पोइट्री सोसाइटी की ज्यूडिथ हम दोनों
से सवाल करेंगी। अन्त में हम दोनों इसी तरह अपनी एक एक कविता पढ़ेंगे।
मैंना बेहद
खूबसूरत कवि ही नहीं, अच्छी कविता पाठन भी करती हैं, मैं अपनी तुलना मैना से कर ही
नहीं पाती, लेकिन हम दोनो का जुगल पाठ बिना किसी मेहनत या पूर्वाभ्यास के सफल सा लगा,
हम दोनों की पिच एक ही थी, लहजा एक सा था, और हम दोनों को पाठ में किसी तरह का गतिरोध
महसूस नहीं हुआ।
लेकिन असली
परीक्षा अन्त के सवाल जवाब सेशन में थी, हम दोनों को ज्ञात ही नहीं था कि ज्यूडिथ क्या
पूंछने वाली हैं, ज्यूडिथ बेहद जहीन साहित्यकार है, वे जयपुर फेस्टीवल में भारत आ भी
चुकी हैं, जयपुर फैस्टीवल के आयोजकों से अच्छा परिचय भी है़ । जैसा कि मैंने अनुमान
लगाया मैना से ज्यूडिथ के सवाल अनुवाद को लेकर थे, क्यों कि मैना अंग्रेजी और वैल्श
दोनों में समान अधिकार रखती हैं, मैंना ने स्वीकार किया कि हालांकि उनकी शिक्षा दीक्षा
अंग्रेजी में हुई, लेकिन उनकी कविता की भाषा वैल्श ही है, जिसकी उन्होंने विधिवत शिक्षा
भी नहीं ली। हालांकि मैना अन्य साहित्यिक विधाओं में अंग्रेजी का उपयोग कर लेती हैं।
मैंना अनुवाद
में अधिक रुचि नहीं रखती, जबकि यूरोप के अधिकतर कवि अनुवाद और कवि कर्म को एक साथ करते
है। अनुवाद ना कर पाने को मैना अपना आलस्य या अतिव्यस्तता मानती है, जबकि उनकी कविताओं
का अनेक वैश्विक भाषाओं में अनुवाद हो चुके है।
आरम्भ में मुझ
से भी यही अनुवाद पूछा गया कि विदेशी भाषा के अनुवाद में क्या समस्या आती है और किस
तरह से मूल भाषा तक पहुंचा जा सकता है।
मैंने यहीं
कहा कि अनुवाद मेरे लिये स्वेच्छा से स्वीकारा कार्य है, और मैं उन्ही कवियों का अनुवाद
करती हूँ जिनसे संवाद कर सकती हूँ, या जिनसे कुछ मित्रता का भाव भी। वह इसलिये कि मैं
कविता कर्म को शब्दों कुछ अलग जानती हूँ, कविता में शब्द काफी लम्बी यात्रा पूरी करके
आये होते हैं, इसलिये कविता के अनुवाद के लिये कवि के जीवन, व्यक्तित्व और उसकी जीवन
यात्रा को समझना जरूरी होता है। मैं पहले कवि को समझती हूँ फिर कविता को, मैना की कविताओं
के साथ मुझे सबसे बड़ी समस्या यह हुई थी कि मैना का कार्यक्षेत्र बेहद विशाल है, वे
कवि तो स्वाभाविक रूप में हैं, लेकिन एक अच्छी समाज सेविका, भाषा आन्दोलन कर्ता, बाल
मनोविज्ञान अध्यन कर्ता भी हैं, उनका यात्रा क्षेत्र भी विशाल है़ । वियेतनाम युद्ध
के तुरन्त बाद मैना ने एक डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाई और साथ ही कई कविताएं भी लिखीं,
इन कविताओं का अनुवाद तभी सहज हुआ जब मैंने स्वयं वियेतनाम यात्रा की़ यही अतः अनुवाद
करना मेरे लिये सहज नहीं है, मैं आराम से अनुवाद करती हूँ, और बहुत सलेक्टिव भी हूँ।
दरअसल अनुवाद मेरी कविता से रूबरू होने का जरिया भी है़।
ज्यूडिथ को
इस बात का भी आश्चर्य था कि सेठ मिचेलसन, जो कि हिन्दी का एक शब्द नहीं जानते ने मेरी
कविता का अंग्रेजी में अनुवाद किया। जब मैंने उन्हे बतलाया कि सेठ ने किस तरह से मेरी
कविताओं को हिन्दी में सुना, उसके नोट लिये और फिर हर पंक्ति को समझ कर अनुवाद किया
तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ, क्यों कि यहां अनुवादक स्रोत भाषा से पूरा अनभिज्ञ था।
दरअसल कविता का अनुवाद एक सहज मानसिकता है जो एक कवि के हृदय से दूसरे कवि के मस्तिष्क
तक पहुँचती है।
सबसे रोचक सवाल
थे, भारतीयता, भारतीय भाषाओं और भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में। ज्यूडिथ जयपुर फेस्टीवल
में आ चुकी हैं, और इस बात से अचम्भित थी कि अंग्रेजी के अलावा अन्य साहित्य की गूंज
क्यों नहीं सुनाई दे रही है। यहीं नहीं उनके अनुसार जयपुर फेस्टीवल के साहित्य कुछ
गायब सा लगता है, दरअसल अच्छे साहित्य की समझ तो सभी को होती है लेकिन बालीवुड या भारतीय
मीडिया उनके लिये ज्यादा महत्व नहीं रखता, विश्व के नामचीन साहित्यिक अवसरों के हिसाब
से उन्हें जयपुर फेस्टीवल में साहित्य की कमी महसूस होती रही है, तो उनका अगला सवाल
था कि क्या भारत में आज भी लिखा जा रहा है, जब मैंने उन्हे बताया कि कम से कम ३० प्रमुख
भाषाओं में लगातार बेहद खूबसूरत लिखा जा रहा है। युवा लेखन ना केवल सक्रिय बेहद जहीन
भी है, तो उन्हे आश्चर्य हुआ। क्यों कि ये युवा साहित्य उनके पास नहीं पहुंच पा रहा
है।
फिर अनुवाद
के बारे में सवाल उठा कि इस साहित्य का अनुवाद क्यों नहीं होता? मेरा सवाल था कि किस
अन्तराष्ट्रीय भाषा में अनुवाद हो? क्यों कि वैश्विक कविता की भाषा अंग्रेजी नहीं स्पेनिश
है, फ्रैंच भी, यही नहीं अनुवाद होना साहित्य के लिये आवश्यक बंधन तो नहीं, जरूरी नहीं
कि हम अपने हर लिखे पढ़े को थाली में परोस के पेश ही करें,,,,
साहित्य का
कुछ भाग स्वयं के लिये भी होता है, बिल्कुल आत्मचिन्तन की तर्ज में......
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