मैं विरोध करना चाहती हूँ
स्याह पर्दों का
और अपने ऊपर चढ़ा लेती हूँ
सुर्ख लिबास
मुझे उम्मीद होती है
कि मेरा सुर्खपना
उनके स्याह पर एक
सूराख करेगा
सच होती है मेरी उम्मीद
जब एक खातून कहती है
खुदा खैर करे
हम भी आपके से बनेंगे....
.............
कैसे उठाती होंगी
वजन
ये नाजुक इबारतें
उनके
सिर्फ
सिर्फ उनके
खुदाओं का ?????
२०१५ में , मैं इरान में थी, यह उस वर्ष की चौथी विदेश यात्रा थी, कुछ वर्ष यात्रा प्रिय होते ही हैं, हाँ इरान यात्रा मेरे लिये स्वप्न प्रिया थी,,,फरवरी में अचानक इरान एम्बेसी से फोन आया कि इस साल के फज्र पिइट्री फेस्टीवल में आपका नाम चुना गया है, कृपया कुछ कविताए और बायों डेटा भेज दे. मुझे समझ नहीं आया कि दिल्ली में इतने महारथी बैठे हैं तो यह कृपा कैसे हुई... फिर याद आया कि दो हजार पाँच में मेरी कई कविताओं के अनुवाद एक अच्छे इन्टर्व्यूह के साथ वहाँ कि प्रमुख पत्रिका में छपी थी, और अनुवादक वही परि थी, जिसकी गाथा मेरे मन में परिकथा बन गई है... संभवतया यही परिपेक्ष्य था।
खैर जब तक फज्र फेस्टीवल का कार्यक्रम शुरु हुआ, मुझे अमेरिका एलिस पार्टनोइ के बुलावे में जाना था, दोनों यात्राओं के बीच वक्त कम था। लेकिन अच्छाई यही थी कि दोनों यात्राओं में टिकिट से लेकर सारे बन्दोबस्त आयोजक ही कर रहे थे। अमेरिका यात्रा के लिए वीसा का बन्दोबस्त करना था, लेकिन ईरान यात्रा में सारा काम वे ही देख रहे थे,
,, फिर भी व्यग्रता तो थी, खास तौर से जब दस दिन पहले तक मेरे हाथ में कुछ प्रमाण ना हो... खैर जैसा कि सरकारी कामो में अक्सर होता है,,,, आखिरी सप्ताह में सारी तस्वीर साफ हुई, मुझे मुम्बई जाना था, जहाँ पर ईरान कल्चर सैन्टर मेरी पूरी तैयारी कर रहा था। मुझे बता दिया कि आप होटल मे रहें, और सारा खर्चा हम वहन करेंगे। मुम्बई में पहुंने के बाद यह मेरा सबसे सरल वीसा था, मैं आराम से ईरान कल्चर सेन्टर की चाह पीती रहीं, और वही से मेरा पासपोर्ट एम्बेसी में भेज दिया गया। दो घण्टे के उपरान्त मेरे पास मेरा पासपोर्ट वीसा सब कुछ था, कल्चर सेन्टर का एक कर्मचारी होटल तक छोड़ने तक आया। मेरे टिकिट बिजिनेस क्लास में बुक किये गये थे, तो हवाई जहाज तक पहुंचने में भी कोई समस्या नही... ओमान में पुनः होटल हाजिर,,,,
जब तेहरान पहुँची तो एक घबराहट सी महसूस हुई, बेहद थमी सी हवा थी, घुटी घूटी, हर कोई सिर नीचे किए अपने काम से काम,,, कोई खिलखिलाहट या मुस्कुराहट नहीं. यहाँ तक वीसा चैक पोस्टर भी कर्मचारी आँख तक नहीं मिलाते ,,, यहाँ पर चीन के यात्रियों की अच्छी खासी भीड़ थी, दरअसल चीन और ईरान में बड़ा दोस्ताना सम्बन्ध है.... कुछ घबराहट हुई, क्यों कि समझ नहीं आ रहा था कि कौन से गेट पर पिकअप मिलेगा।
तभी मुझे कुछ लोग हाथ हिलाते दिखाई दिये,,, मैं पास पहुँची तो पूछा,,,, इन्दिया,,,, मैंने सिर हिलाया, फिर उन्होंने मेरे नाम का कार्ड दिखाया,,,, वे मुझे लेकर सीढ़ी पर चढ़ने लगे,,, मैंने देखा कि सीढ़ी के ऊपर एक विडियों ग्राफर खड़ा पिक्चर ले रहा है, मुझे लगा कि कोई नेता होगा,.. मैं पीछे मुड़ कर देखने लगी तो पीछे कोई नहीं था... तब समझ आया की यहाँ कवि को भी इतना सम्मान दिया जाता था,
फज्र फेस्टीवल में इरान के कम से कम चारसौ कवि भाग लेते हैं, और विदेश से केवल पाँच बुलाये जाते हैं, इस बार भारत, मिश्र , इराक , बलूचिस्तान और अफ्रीका से पांच कवि चुने गये। अपने देश के कवियों को सम्मान देना अच्छी ही बात है।
हमें लेकर सात सितारा होटल आाजादी होटल ले कर आया गया, जहां पर इरान कल्चर सैन्टर के अनेक अधिकारी थे। मैंने देखा कि उनमें कोई स्त्री नहीं थी, मुझे अपने दुभाषिये से परिचित करवाया गया, और भोजन के लिये पूछा, मैं बेहद थकी थी और खास भूख भी नहीं.... भाषा के परिचय के अभाव में कुछ सम्वाद समझ नहीं आ रहा था, बाकी चार कवि अरबी जानते थे, अतः अरबी फारसी में सम्वाद की समस्या नहीं थी,, लेकिन मेरे लिये तो अरबी फारसी सब एकसी थी, इतना ही नहीं वहाँ स्त्री पुरुष का भेदभाव साफ दिखाई दे रहा था, ना किसी ने हाथ मिलाया, ना ही कोई मेरे साथ बैठा, अनुवादक हल्की बात का तो अनुवाद कर देता, लेकिन कोई गम्भीर बात होती तो चुप रह जाता,,,,, इतने शब्दों के बीच भी जब मन के सामने कोई तस्वीर ना खुले तो भाषा की सीमा समझ में आती है
जब मैं ईरान में थी, तो मैंने देखा कि पूरा ईरान इराक के खिलाफ भावनाओं से अटा पड़ा था, वहाँ "वार हाउस' हैं जो इराक ईरान की कहानी के तथ्य को इस तरह से प्रस्तुत करता है कि लोगों मेंनफरत की आग ना बुझ पाये. हर चौराहों पे इराक ईरान युद्ध के शहीदो की मूर्तियाँ थी,
एक कवि शाहरूख ने बताया की समकालीन ईरानी कविता मुख्यतया युद्ध कवितायें ही हैं।
हर स्थानीय फिल्म युद्ध को घटना बनाती है। आज भी नवयुवकों को पढ़ाइ के बाद फौज में कम से कम3-4 साल काम करना पड़ता है, इजराइल की तरह....
वे चीन के प्रति नरम है, भारत को भी नरम दृष्टि से देखते हैं,,
वहां जाकर मुझे प्रेस टीवी देखते वक्त पहली बार ( मेरा अज्ञान है यह , मानती हूँ) पता चला की एक ऐसा समुदाय हैं जो अपने को मुस्लिम तो मानता है, लेकिन डायरे्क्ट खुदा का बन्दा। और शिया सुन्नी दोनों के खिलाफ, कुछ कुछ इसाई धर्म के "बन्दोकोस्त समुदाय" की तरह जो अन्य ईसाइयों की तरह ना क्रिसमस मनाते हैं, ना गुड फ्राइडे।
मुझे ईरान की यह रणनीति बेहद चौंकाने वाली लगी कि वे इराक की मदद को तैयार हो गये, फिर समझ में आ गया कि वे अमेरिका के प्रभूत्व को चुनौती देने को और अपने धर्म स्थान की रक्षा के लिये तैयार हुए होंगे...
राजनीति बेहद चक्करदार बन्द गलियाँ है, भूल भुलैया भी नहीं....
ईरान के सन्दर्भ में मुझे शुरुआत से बात करनी थी, लेकिन मैं आज के राजनैतिक सन्दर्भों को ध्यान रखते हुए आखिरी दिन हुए सम्वाद से अपनी बात रखती हूँ।
निसन्देह वैश्विक साहित्यिक सोच के अनुरूप अरब और इस्लामिक देशों के साहित्यकार भी साम्यवादी सोच को महत्व देते हैं, लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ जब मुझे इराक के कवि अलि और अरबेनिया के कवि अजरुद्दीन के बारे में पता चला कि वे सक्रिय राजनीति में है, जहाँ अलि अल शाह मेम्बर आफ पार्लिया मेन्ट हैं वही अजरुद्दीन मेयोबि मन्त्री भी रह चुके हैं।
अलि अल शाह ने स्विटजर लैण्ड में पढ़ाई की है, इसलिये वे अंग्रेजी से वाकिफ है, लेकिन अजरुद्दीन मेयोबि मात्र अरबी और थोड़ी बहुत फ्रैंच बोल पाते थे। लेकिन सम्वाद के लिये खुलापन अजरुद्दीन मेयोबि में था, वे भारतीय राजनैतिक परिवर्तन से वाकिफ थे।
मैंने उन से पूछा कि आप लेखन, पत्रकारिता और राजनीति को एक साथ कैसे सम्भाल पाते हैं, क्यों कि तीनों चीजें तीन अलग दिशाओं में जाती हैं तो उन्होंने बड़ा सटीक जवाब दिया
आम जनता विचारधारा को नहीं देखती, उसके लिये सड़क, मकान, रोजगार, जैसे मसले अहम होते हैं, इसलिये उसे अलग कर देखना बेफकूफी है.... हाँ लेखक के रूप में मुझे ध्यान रखना है कि मेरी वैचारिक दृष्टि प्रभावित तो नहीं हो रही है। पत्रकार के रूप में मेरे सामने केवल यथार्थ रहता है....
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