इस्तानबुल एक
शहर नहीं इतिहास की सलवटे हैं, ना जाने कितने वक्त इसमें गड्मड होकर सो गये हैं, मैं
इस शहर से करीब तीन बार गुजरी और बस एक बार ठहरी. वो भी एस्कीशेर जैसे निहायत खुबसूरत
शहर से लौटते हुए इस्तानबु फेस्टीवल में भाग लेना था तो मात्र तीन दिन रहना स्वीकार
करके रुकी भी थी, अब तीन दिन इस्तानबुल जैसे शहर के लिये राई के दाने के बराबर होते
हैं, क्यों कि मेरे पास दुपहर तीन बजे तक का ही वक्त होा था, बाद मैं कविता पाठ के
लिये जगह जगह जाना होता था। मैं अकेल ही थी, और भाषा की समस्या भी थी, एक पुर्तगाली
कवि भी था, लेकिन वह सुबह सुबह अकेले चला जाता था, तो मैने भी सुबह का नानश्ता करके
निकलने की ठानी, इन पर्यटन स्थलों का एक फायदा होता है कि कोई ना कोई एक चौक ऐसा जरूर
होता है जहाँ आप काफी कुछ देख सकते हैं,तो जाना तो टैक्सी से हुआ,,,,,एक के बाद एक
मीनारे, मस्जिदें और बाड़े,,,, देखतेरहों दीमाग में दर्जहोने में वक्त लगता है। लेकिनअकेले
होने काफायदा यह होता है कि यात्रा फिल्म की रील बन दृष्य दर दीमाग में उतरती जाती
है, आज भी मैं आँखे बन्द कर के जालियाँ दीवारे , अहातेऔर औजार याद कर सकती हूँ। शाम
को बाजारभी देख लिया बाजार तो ईरान के बाजार के सामने फीका सा लगा। जब लौटनेलगी तो
एक टैक्सी ली, लेकिन ड्राइवर भाषा जानता नहीं था... रास्ते में मुझेघबराहट होने लगी
क्यों कि लौटने का रास्ता जाने के रास्ते से अलग था, तो मैंने उससे पूछना शुरु कर दिया,
लेकिन वह बिना कुछ कहे गाड़ी चलाता रहा, मैंने जोर जोर से उससे कहना शुरु किया कि ये
रास्ता ठीक नहीं है नहीं तो वह गुस्सा गया। और बीच रास्ते में टैक्सी का दरवाजा खोल
कर इशारा किया कि उतर जाओं, और कुछ इस तरह बोला कि मानों कह रहा हो कि बक बक बक बक
... मैं आराम से उतर गई,.. और एक सामने की दूकान पर जाकर पता पूछा तो ह दुखी होकर कहने
लगा.. मैं दूसरी टैक्सी मंगवा देता हूं, मेंने कहा कि यह बताओं , जगह कितनी दूर है,
उने कहा कि ये पीछे से रास्ता है , दस मिनिट में पहुंच जाओगी । मैं आराम से चल पड़ी
और दस बीस मिनिट में अपने ठिकाने पर थी।
दूसरे दिन मैने
जाते वक्त तो टैक्सी ली, क्यों कि होटलमंगवा देता है, लेकिन लौटते वक्त ट्राम स्टेशन
को चल दी, और लोगो से पूछा कि कैसे लौटा जासकता है, हमे वहाँ के एकेडेमिक होटल मेंठहराया
गया था, और यह बताया गया था कि इस जगह को सब जानते हैं, साथ में होटल की चाभी पर नक्शा
भी बना था। इसलिये बिनाभाषा के भी लोगों को समझ में आ जाता है। पता चला किट्राम नदी
के इस पार तक जायेगी, आप ब्रिजपार कर दूसरी ट्रेन लेलेना, वहाँ से पहाड़ चलते हीठिकाना
है।
इस्तानबुल बेहद
ऊंचा नीचा है। इसलिये पतलीपगडंण्डिया हर जगह से निकलती है। ट्राम में एक कलाकार लड़का
मिल गया, जिसने कहा कि वह साथ चलता है, और उसकी मदद से मैं आराम से दो डालर में ही
ठिकाने पहुँच गई। गलियों से गुजरते वक्त लगा कि अरे असली इस्तानबुल तो यह है, हर गली
में कोई मस्जिद, कोई मीनार, को इमारत,,,,, बस तीसरे दिन मैं पैदल निकल गई और गलियों
में भटकती रहीं, तब मुझे लगा कि इस्तानबुल की यात्रा तो अब सूरु हुई है, इस शहर को
गलियों में खोजना चाहिये.... लेकिन यह मेरा आखिरी दिन था।
आज इस शहर के
सीने पर जो चोट लगी है, मुझे उसका दुख है, लेकिन इस्तानबुल तो गलियों में खोजना ही
है...
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