Wednesday, January 4, 2017

Villa Walbreta-3

 अभी अभी तो यहीं थी, ठीक मेरी खिड़की
के सामने
वह नदी कहाँ गई??????

नदी का खोना जिन्दगी की पैरहन से गलहार का उतरना है,

कल जिस झील को अपनी बालकनी से देख कर मैं मन्त्रमुग्ध हो रही थी, वह मानो पूरी तरफ गायब थी, दिल धक्क सा रह गया, कहीं यह बुरा सपना तो नहीं, लेकिन जब आँखें कुछ स्थिर हुई तो पाया कि नदी कोहरे से ढ़ंक गई  है, झील के पीछे झांकती पहाड़ियों की गर्दन तक कोहरे की चादर चढ़ गई है।

मैं गरम कपड़े पहन कर बाहर निकल पड़ती हूं", कुछ पैदल चलने के मोह से, और रास्ते पहचानना भी चाहती हूँ, विला पहाड़ी पर है, फिल्डाफिंग रेलवे स्टेशन से उतर कर ऊपर चढ़ना पड़ता है,  इसलिये सड़क मानों गोलाई में घुमती सी लगती है, मुझे अभी तक रास्तों की पहचान नहीं हो पाई है, यूरोप में हर जगह नक्शे बने होते हैं, और ज्यादातर लोग नक्शा पढ़ कर चलते हैं, लेकिन मुझे नक्शे समझ ही नहीं आते।
मेरे लिए सहज है पूछ कर चलना, और मैंअधकतर यही रास्ता अपनाती हूँ, लेकिन इस जन रहित गाँव से प्रान्त में मार्निंग वाक के लिये क्या पूँछू, किससे पूँछू, तो बस एक दिशा पकड़ कर चल देती हूँ, और सोचती हूँ कि कुछ चलने के बाद इसी रास्ते से लौट आऊंगी,

चलते चलते मैं अपने प्रोजेक्ट के बारे में सोचती हूँ, कैसे आरम्भ करू। सड़क के किनारे छोटे छोटे आलूबुखारे का दरख्त हैं, जिसने अध पके फलों को नीचे गिरा दिया है, मैं एक फल उठा कर पौँच कर मुंह में रखती हूँ। बचपन में मामा के गाँव में जमीन पर गिरे फलों को ना जाने कितनी बार खाया है... खट्टमिट्ठा बुखारा अपने रस को भीतर तक निचौड़ देता है।

. सबसे पहले यही सोचा कि बस वैसे ही अपने आप को खाली करना पड़ेगा, जैसे कि सड़क के किनारे लगे आलूबुखारे के दरख्त ने अपने को खाली कर दिया। पके फलों को इस तरह से झाड़ दिया कि मानों कोई सम्बन्ध ही ना हो। मोह को झाड़ना बस दरख्तों को आता है, फल पक गये, एक चक्र पूरा हो गया, उन्हें  जाना है,

मैं नीचे झुक कर उन फलों को बटोरने का सोचती हूँ, लेकिन अधिकतर फट चके हैं, फलों को क्या फरक पड़ता है कि उन्हे पंछी खाये या वे जमीन के कीड़े,,,, उनकी नियति सिर्फ पकना है, और वे ये काम शिद्दत से करते हैं, यह इंसान ही है जो कच्चे पक्के फलों को समय से पहले पकाना चाहता है, निसन्देह समय से पहले पकने में फलों का दम जरूर घुटता होगा....

हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के चक्र को तोड़ना नहीं चाहा, फल भी  खाये तो दरख्त से मांग कर खाये, अपने देह दर्द के उपचार करने को भी छीना झप्पट्टी नहीं की,,,, अथर्ववेद के समस्त उपचार सम्बन्धी मन्त्रो में प्रकृति से प्रार्थना की है। उनसे सहयोग मांगा है, तभी तो उनका उपचार सफल हुआ होगा।

यही प्रोजेक्ट लेकर आई हूँ ना मैं,,,,

आज पहले दिन की यात्रा ने ही काफी बीज दिये हैं सोचने को, मैं आकर कुछ नोट्स बनाने की कोशिश करती हूँ, लेकिन ना जाने क्यों अब मुझे लेपटाप की जगह कागज पन्नों में लिखना भा रहा है।  विला की डायरेक्टर की तरफ से खत आया है कि बारह तारीख को दस बजे म्यूनिख  की पत्रकार इन्टर्व्यू लेने आयेंगी,  हम पाँचो आर्टिस्टों को अपने अपने प्रोजेक्ट  के बारे में बात करनी है।
इसलिए मैंने अपने मन में एक रूप रेखा बनानी शुरु कर दी।

इस बेहद खूबसूरत सन्नाटे में मेरा दीमाग दो रास्ते पर चलने लगा है, एक और मैं अपने प्रोजेक्ट के बारे में सोचती हूँ तो दूसरी ओर मेरी अच्छी बुरी स्मृतियाँ मुझ पर बन्दर के बच्चे सी चढ़ गई हैं।

यह जाना है कि विश्वास टूटने के लिए ही होता है, और यह भी कि  मोह के धागे मजबूत होते हैं, लेकिन उन्हें कच्चा करना भी एक जरूरत है, जितना हम धागों से उलझते जाते हैं, उतने वे हमसे लिपटते जाते हैं, ..

फिर भी क्या जरुरत थी ऋषि मुनियों को पहाड़ो पर जाने की, क्यों बुद्धत्व के लिये ऊँचाई का महत्व बढ़ता गया.... अजीब बात यह भी है कि  वे जितना ऊपर चढ़ते थे, उतना वे उतारते भी जाते थे, लबादे कम होते जाते, अन्त में बस एक चीर,,,,

मेरा दीमाग भी खुल रहा है,,,,,,

विषय कुछ अधिक स्पष्ट हो रहा है, कितने बरस बीत गए प्रकृति से सीधा समन्ध बनाये जमाना बीत गया, बचपन में मामा के गाँव में बितायें दिनों के अलावा शायद ही कभी प्रकृति के इतने निकट रहने का मौका मिला हो. चिड़ियों की चहचहाट इतनी स्पष्ट शायद ही कभी सुनाई दी हों। हवा की सरसराहट, बादलों का रंग बदलना, सब कुछ कितना नया नया लग रहा है....

11.8.16

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