Sunday, December 18, 2016

VillaWalbreta,, a journey of dreamland - part-1

इतने अन्तर्राष्ट्रीय कवि मित्रों से आर्टिस्ट रेसीडेन्सी के बारे में काफी सुना था, लेकिन कभी कोशिश ही नहीं की। पहली बात तो यह थी कि मैं खुद ही इतनी आशान्वित नहीं थी, कि  किसी अजनबी जगह जाकर कुछ लम्बे वक्त तक रहूँ, दूसरा यह भी था कि मैं सोच नहीं पा रही थी कि कौन सा प्रोजेक्ट उपयुक्त होगा़ , हालांकि मैंने कुछ तथाकथित मशहूर कवियों को अपनी कविताओं के अनुवाद जैसे प्रोजेक्ट के लिए भी बाहर जाते देखा है।
फिर कृत्या फेस्टीवल काफी वक्त और शक्ति ले लेता है। लेकिन जब अगुस्ता ने मुझे जर्मनी के विला बालब्रेटा के बारे में बताया तो थोड़ा उत्साह जगा। अगुस्ता एक कवितोत्सव चलाती हैं, , वे चाहती थी कि मैं उस उत्सव में भाग लूँ। इसलिए उन्होंने प्रसिद्ध विला वालब्रेटा नामक रेसीडेन्सी के लिये मेरा नाम दिया, जिससे मैं उनके उत्सव में भी भाग ले सकूं।

विला वालब्रेटा रेसीडेन्सी एक बेहद प्रसिद्ध रेसीडेन्सी है, जिसमें चुनाव जर्मन कलाकारों की प्रस्तुति पर होता है, यहां रहने के लिए विला के बेहद खूबसूरत अपार्टमेन्ट है, जिसमें सोने, पढ़ने के कमरे के साथ रसोई तक होती है, और साथ में एक अच्छी रकम खाने पीने के नाम पर स्कालरशिप के रूप में दी जाती है।

मुझे अगस्त और सितम्बर के मास के लिये विला में स्थान मिला, अगस्ता का फेस्टीवल अक्तूबर में था, इसलिये तीसरे महिने के लिये उन्होंने म्यूनिख नगर के Ebenboeckhaus नामक रेसीडेन्सी के लिये नाम दिया, यहाँ रहने की सुविधा अच्छी थी, लेकिन कोई स्कालर शीप नहीं थी, यानी कि मुझे विला से मिली स्कालर शिप में ना केवल तीन महिने खाना खाना था, बल्कि अपनी यात्रा के टिकिट का पैसा भी निकालना था।

लेकिन दो रेसीडेन्सी का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि मुझे जर्मनी के ग्रामीण और शहरी जीवन का अनुभव हो गया, और सम्भाल कर खर्च करना भी आ गया।

जाने से पहले का वक्त कुछ भागमभाग से भरा था, क्यों कि छोटी बेटी , जो दो साल से देश नहीं आ पाई थी, बीस बाइस जुलाई तक ही आ पारही थी, क्यों कि ब्रिटेन के नियमों के अनुसार वह अपनी छोटी सी बेटी का स्कूल नहीं भंग करवा सकती थी। अब मेरी और उसकी चाहना थी कि कम से कम बीस दिन तो साथ रहें।  जाने से पहले का वक्त बेहद भागम भाग से भरा था, नातिन इस उम्र में पहुंच गई थी, कि उसे घुमाने लेजाना जरूरी था, बेटी को शापंिग करवानी थी, और मुझे जाने की तैयारी। इस बीच एक और बात यह हूई कि मुझे शंघाई के प्रसिद्ध बुक फेयर में जाने का इनविटेशन मिला था, और मुझे जर्मनी से आने की सुविधा भी दी गई थी, अतः तैयारी एक तरह से दो फेस्टीवलों और दो रेसीडेन्सी के लिये करना था।

टिकिट कुछ इस तरह था, कि मैं और बेटी एक ही वक्त निकल कर साथ मुम्बई पहुँचे, बेटी नासिक के लिए रवाना हो गई, ओर मैं जर्मनी के लिये, लेकिन पिछले दो दिनों  में अखिर काम निपटाते निपटाते में इतनी थक गई थी यात्रा सुखद नहीं लग पा रही थी, तीन दिनों के रतजगे के बाद जब म्यूनिख पहुंची तो सिर और शरीर इतना भारी था कि बस सोजाने की इच्छा हुई। अगुस्ता ने मुझे बताया था कि उनकी मित्र एनरेटे  मुझे लेने आयेंगी, मैं ना उन्हे जानती थी, ना वे मुझे, इसलिये मैं हर स्थिति के लिये तैयार थी। लेकिन आश्चर्य तब हुआ कि हम दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया।
एयरोड्रम से विला वालब्रेटा की यात्रा कम लम्बी नहीं थी, कार में ही हम लोगों को कम से कम डेड़ घन्टा लग गया। विला म्यूनिख से बाहर फिल्दाफिन Feldafing नामक गाँव में है, जो बेहद खूबसूरत झील वाले स्टार्नबर्ग Starnberg, कस्बे में पड़ता है। 
फिल्डाफिंग झील के किनारे होते हुए भी पाड़ी इलाके सा खूबसूरत है, जिसमें पतली पतली गलियाँ पहाड़ी पर घूमती रहती है। रेसीडेन्सी में जाने से पहले मैंने एनरेटे से कहा कि मझे पहले किसी स्टोर में ले चले, क्यों कि बाद मैं मुझे खोजने में दिक्कत होगी।
म्यूनिख में रेवे नाम से स्टोर चलते हैं, एनरेटे मुझे सबसे पहले रेवे ही ले गई। मैंने अपनी समझ के अनुसार तीन चार दिन का खाना खरीद लिया, क्यों कि चार पाँच दिनों के बाद मुझे शंघाई जाना ही था।

विला में केयर टेकर इतंजार कर रहे थे, जिन्होंने मेरे पहुंचते ही कमरे की चाभी के साथ मेरी स्कारशिप की पहली किस्त दे दी, जिस संजीदगी से काम हो रहा था, वह काबिले तारीफ था।
 विला में पाँच कलाकार एक साथ रहते हैं, जिनके अलग अलग अपार्टमेन्ट होते हैं। मुझे अपना अपार्टमेन्ट देख कर बेहद खुशी हुई, खूबसूरत सा सोने का कमरा, बड़ा सा पढ़ने लिखने का कमरा, एक बालकनी, छोटी सी रसोई और सुन्दर सा बाथरूम।
एनेट्टे मुझे छोड़ कर चली गई, रास्ते भर वे मुझ से सवाल पूछती रही थीं. जिससे महसूस हो रहा था कि काफी जानकार हैं, बाद में पता चला की वे बेहद प्रसिद्ध संगीतकार पिता की बेटी है, और स्वयं भी साउण्ड इंजीनियरिंग से सम्बन्ध रखती है। पता नहीं क्यों ‌और कैसे हम दोंनो में एक अच्छा सम्बन्ध सा बन गया।
कमरे में जाते ही एक अन्य सह कलाकार शोरलेट्ट से मुलाकात हुई, उन्होंने बताया कि वे कल Andechs Abbey जा रहें है, यदि मैं चाहूँ तो  उनके साथ चल सकती हूँ, सच कहूं तो मैं ५तनी थकी थी कि मूंह से बोल तक नहीं निकल रहे थे, लेकिन मैंने उनसे कहां कि मै कोशिश करूंगी कि मैं समय पर नीचे आकर मिल लूं,

बस, इस तरह से मैंने अपने पहले दिन को विदा सा कहा, और दिन के करीब दो बजे से जो सोई तो बस सोती ही रही। लेकिन शाम को जब अपनी बालकनी से झील का नजारा देखा तो महसूस हुआ कि जि्नदगी में इतनी खूबसूरत जगह शायद ही कभी नसीब हुई होगी.....


9.8.2016


Sunday, December 4, 2016

शायराना घरोन्दे में एक पंछी...



शायराना घरोन्दे में एक पंछी...



उसने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा
उसने एक बार भी जाते जाते विदा नहीं कहा
वह बस चुप हो गया
और अपने बाजे को भी नहीं उतारा

किसी ने फिर कोई खबर नहीं सुनी
वह किसी दिन अचानक नहीं चला आया
हालाँकि किसी को उसका इन्तजार नहीं था
और ना ही उसके लिए रोया

खाने की लम्बी मेज पर मंगोली नाक नक्शे वाले अहमत तैलि का दर्द केवल तुर्की नहीं। पूरी दुनिया वे सब मुलुक, जहाँ के लोक गायक विलुप्त होते जा रहे हैं , इस दर्द से साझा कर सकती है। हम होटल शीर यानी की शायरी के घरोन्दे में शायराना अन्दाज में सजी लम्बी सी मेज में तुर्क के खास कवियों का वक्तव्य सुन रहे हैं। इस्लामिक देशों से बेहद अलग, अमेरिकन राजनीति से प्रभावित इस देश का दर्द देखने में संभवतया महसूस नहीं होता, लेकिन शायरों, लेखकों ने इस दर्द को बेहद होशियारी से थामा हुआ है, दरअसल यहाँ के शायरों , लेककों और कलाकारों ने सरकार के नकेल बखूबी से पकड़ रखी है, यह उनकी वक्तव्यों से जाहिर होता है।

अहमत तैलि कह रहे हैं... हमे सरकार से कोई भय नहीं, वे हमें जेल में डाल कर देख ही चुके हैं,  हमारी कलम रुकती नहीं, हद से हद वे हमारी सर से छत उतार लेंगे, हमारी रोटी छीन लेंगे....जब तक यह होटल शायरी है, हमें उसकी भी चिन्ता नहीं। अब यह शीर होटल क्या, एक जुनून है इसात बोजबियक का , जो इस होटल के मालिक हैं। शीर में इसात ने कविता को मिट्टी गारे से रचा है, रंगो से सजाया है और फिर दिल से अपनाया है, शीर के सामने कलम दवात को थामे दो हाथ हैं, होटल में घुसते ही तुर्की कवियों की मूर्तियाँ दिखाई देंगी, दीवारों पर कवियों के चित्रों की बेहद खूबसूरती से प्रस्तुति...सोफों के कपड़ों पर कविता की पंक्तियाँ, और मेजों पर कविता लिखी कागज की कतरनें........शीर में कमरों के नाम तुर्क के बड़े कवियों के नाम पर रखे गए हैं। कुछ कमरे कवियों के लिए इस तरह से सुरक्षित हैं कि वे जब चाहे आकर रह सकते हैं।कमरों के भीतर श्वेत सज्जा के साथ दीवार पर कवि और कविता की चित्रमय प्रस्तुति..शीर के चर्चा कक्ष में दुनिया के बड़े- बड़े कवियों के चित्र और उनकी कविताएँ खुबसूरती से सज्जित हैं। भोजन कक्ष में कविता-वृक्ष है, जिसमें दुनिया के कवियों की कविता हाथ से लिख कर पत्तों की तरह टाँगी गई है.वातावरण में बेहद सादगी और शाइस्तगी....कहते हैं कि नसरुद्दीन होड्जा ने यहाँ की फिजा में, हवा में, वादियों कविता देखी थी
इसात ने उसे साकार किया, इसात के सपने एक पाखी आयी, प्यार के शब्दों को चुनने के लिए, उसने पहाड़ों घाटियों , नदियों और नहरों में से प्यार के शब्दों को चुना ... और इसात को थमा गई...इसात ने रेत गारे और सीमेन्ट को कविता में मिलाया, इस्पात और कान्क्रीट से  कविता को मजबूत किया, रंग रोशन में कविता के छींटे दिए, और शीर होटल यानी कि शायरी का होटल बनाया ...,

मैं नहीं जानती कि व्यवसायिकता के इस दौर में शायरी के घर का क्या मुकाम !
मैं नहीं जानती कि युद्ध की विभीषिका में प्रेम का क्या मुकाम !
मैं बस यह समझ रही हूँ कि कुछ भी नामुमकिन नहीं...
कल्पना का हकीकत में बदलना, या फिर हकीकत काकल्पना में साकार होना.

21 मार्च की रात को जब मैं दिल्ली के हवाई अड्डे में पहुँची तो उतनी परेशानी नहीं हुई, जितनी कि मुम्बई के हवाई अड्डे में हुआ करती थी। चैंकिग आदि का काम काफी जल्दी ही हुआ, लेकिन सबसे अच्छा अनुभव वीसा काउण्टर में हुआ...आफीसर ने पूछा... कहिए मैडम बच्चों से मिलने जा रही हैं? मैंने कहा - नहीं कवितोत्सव में। उसे इस जवाब की आशा नहीं थी, आजकल मेरी उम्र की अधिकतर महिलाएं विदेशों की यात्रा अपने बच्चो के बच्चों की आयागिरी करने को जो किया करती हैं। वह पूछने लगा-आप लिखती हैं, क्या किताब भी है...
मैंने कहा कि संभवतया लिखने के कारण ही बुलाया जा रहा है। और अपना कार्ड उसे दे दिया.. गूगल सर्च कर लीजिए.. वह कहने लगा..मैडम मुझे भी लिखने पढ़ने का शोक है, इसलिए पूछा था।
चलों शुरुआत एक पढ़े लिखे आदमी के दर्शन से हुई.मन खुश था...लेकिन अब समस्या थी वक्त काटने की...फ्लाइट सुबह की थी, और मै रात के एक बजे ही चेकिंग कर चुकी थी, ना सो सकती थी, क्यों कि साथ एक बैग था और मैं अकेली थी

अकेले सफर करने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि हम पूरे वक्त आसपास से परिचित होते रहते हैं. कोई साथ हो तो हम बतियाने मे् मशगूल हो जाते हैं...मैं कुछ वक्त बैठती, तो कुछ वक्त टहलती, किसी तरह से चार बजे तो हमे आखिरी पड़ाव में बैठने पर मौका मिला। मुझे आश्चर्य हुआ कि यहाँ सुरक्षा जाँच बेहद सहज थी, कोई खास बन्धन नहीं... यह फ्लाइट इस्ताम्बुल जा रही थी, लेकिन यूरोपियन देश के काफी यात्री थे, जो वहाँ से आगे की उड़ान लेने वाले थे। मैं देख रही थी कि अनेक विदेशी गेरुँआ वस्त्र पहने हुए ठेठ वृन्दावन वाली वेशभूषा में थे। विकास सर्पोमुखि होता है. जहाँ से शुरुआत, वही पर अन्त। ये युवक उन देशो के होंगे जहाँ हमारे युवक जाने को लालायित रहते हैं और वहाँ के नवयुवक यहाँ शान्ति की खोज में। दोनों की खोज छद्म है, संभवतया वे ताउम्र जान भी नहीं पाते... लेकिन हर सिद्धार्थ के भाग्य में बुद्ध बनना थोड़े बदा होता है।

एक युवति केसरी लहंगा और ओढ़नी पहने, गले में मालाएँ पहने मेरे पास बैठती है। मैं उसकी तरह देख कर मुस्कुराती हूँ तो वह मुस्कुराहट में जवाब देती है। मैं उससे कुछ पूछना चाहती हूं, लेकिन इस तरह कि उसे बुरा ना लगे।
किसी आश्रम से लौट रही हैं आप? -मैंने उस युवती से अंग्रेजी में पूछा।
जी हाँ आश्रम से ही.- उसने किसी आश्रम का नाम लिया, जो मुझे याद भी नहीं।
वहाँ क्या करती हैं? मैंने हिचकते हुए पूछा
बस भजन गाना, मन्दिर की सफाई करना, माला जाप करना.. उसमे जवाब दिया। मैं विस्मित थी, इतने भर से कोई आनन्द कैसे पा लेता है। उस महिला के माथे पर चन्दन की बिन्दियों से लग रहा था कि वह राधावल्लभ जैसे किसी सम्प्रदाय वाले आश्रम में जाती रही होंगी।
क्या आप अपने देश में भी ये वेशभूषा पहनती हैं? मेरा अगला सवाल था।
नहीं, मैं छह महिने नौकरी करती हूँ, और फिर छह महिन भारत आती हूँ, उसपैसे से छह महिने काम चला लेती हूँ।
क्या नौकरी?
हर बार नई खोजनी पड़ती है, क्यों कि लग कर काम ज्यो नहीं कर पाती

मुझे वे पंछी याद आय, जो वर्ष के छह महिने उड़ कर दूरस्थ देशों में जाते हैं और फिर लौट कर अपने डैने मे लौट आते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी , उनका मार्ग नही बदलता, उनकी यात्रा का प्रयोजन भी नहीं...मुझे वह युवती प्रवासी पंछी लगी, जिसकी यात्रा का गन्तव्य मुझे तो समझ नहीं आया।

इस्तान्बुल में मेरे पास काफी वक्त था, डेन्जिली के लिए मेरा जहाज शाम को था, मुझे अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से अन्तर्देशीय अड्डे की ओर जाना था। इस देश में आते ही मुझे यही लगने लगा कि मैं भाषा नामक वस्तु से पूर्णतया अपरिचित हूँ। सब कुछ तुर्की भाषा में था। इशारो के साथ में जब देशीय हवाई अड्डे में पहुँची तो मेरे लिए वक्त मानो थम सा गया। मैंने अपने साथ कोई पुस्तक रखी नहीं थी। हवाई अडथडे में अंग्रेजी के नाम पर अखबार तक नहीं था। मैं घूम घूमकर दूकानों के चक्कर लगाती रही। फिर थक कर बैठ जाती,लेकिन वक्त बिताना बेहद मुश्किल होता जा रहा था। पुस्तकों की दूकानों पर अंग्रेजी में एक भी किताब नहीं....

किसी तरह शाम के चार जे तो मुझे रकेल और अतौल दिखाई दिये, वे भी इसी फ्लाइट से डेंजिली जा रहे थे। मुझे देख कर वे दोनों खुश हुए. मुझे पता चला कि रकेल पूरे दो दिनों से इस्तानबुल में है. खूब घूम रही है.... काश मैं भी....

जब हम डेन्जिली पहुँचे तो अन्य कवि नील हैव  (डेनमार्क) Niels Hav दिखाई दिए। वातावण में खुनक थी, लेकिन हवा बेहद तेज चल रही थीं। मुझे कस कर ठण्ड लगने लगी। रकेल ने अपना लेडर का जेकेट मुझे दिया.... मैं तो स्वेटर लेकर आई थी.... और ऐसी हवा में स्वेटर काम ही नहीं कर सकता था।

जब हम लोग होटल शीर पहुँचे तो रात हो चुकी थी, लेकिन अनेक लोग हमारा इंतजार कर रहे थे। सारी बाते या तो तुर्की में हो रही थी, या फिर फैंच में। मैं सब चेहरों को दीमाग में दर्ज करने की कोशिश कर रही थी।

कहा गया कि हमें थोड़ी देर में नीचे डिनर के लिए पहुँचना है।

मैं जब कमरे में पहुँची तो विश्वास ही नहीं कर सकती कि कोई कमरा इतना काव्यात्मक हो सकता है.. कमरे की दीवारों पर कविताए जड़ी थी. हर जगह कविताओं के पर्चे रखे थे।

मुझे घर से निकले पूरे ३० घण्टे बीत गए, इसलिए अच्छा सा शावर लेना चाहती थी, निसन्देह भोज आरम्भ हो चुका था, लेकिन मेरे लिए कुर्शी खाली रखी थी...
यहीं पर मुझे होटल शीर की कहानी सुनने को मिली, यही पर तुर्क के समकालीन कवियों से परिचय हुआ।